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Sunday, September 20, 2009

दबी जुबान से............

मैं एक जागरुक महिला पत्रकार हूं। निश्चय ही हमारा समाज पुरुषप्रधान रहा है और आज भी उसी रूप में कायम है। आप किसी भी पद पर हों उससे फर्क नहीं पड़ता, पर आप एक महिला है सिर्फ इस कारण आपको कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। मैं ऐसे कई पुरूषों को जानती हूं, जो मिलने पर मुझसे दुआ-सलाम करना नहीं भूलते। चाहे यह मेरे लिए आदर को भाव हो अथवा समाज का डर। पर कुछ ऐसे भी हैं जिनकी निगाहें मुझे मेरे लड़की होने का अर्थ समझाती हैं। यह सच है कि हमारे देश में महिला प्रधानमंत्री रह चुकी है और महिला प्रशासन भी कायम रह चुका हैं। वर्तमान में महिला राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री भी हैं, फिर भी महिलाएं शोषण का शिकार हैं। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि बजाय इसके कि हम उनकी मानसिक वेदना को कम कर करें, हम स्त्री शोषण के विषय में लिखकर उनके प्रति सिर्फ सहानुभूति ही व्यक्त करते हैं और यहीं पर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। प्राचीन काल में स्त्री को बराबरी का दर्जा हासिल था स्त्री को देवी का रुप मानते थे कहा भी गया है यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।। शायद उस समय भी स्त्री के यौवनावस्था को ही सर्वाधिक महत्ता प्रदान की गयी थी यही कारण है कि पूरातन काल में राम और कृष्ण के बाल्यकाल का प्रसंग तो मिलता है परन्तु सीता और रुक्मणी का जीवन ही तब शुरू हुआ जब उन पर यौवन आया क्या कारण है कि यौवनावस्था से पहले या बाद में स्त्री के अस्तित्व का कोई जिक्र ही नहीं होता? उनके जीवन का ध्येय सिर्फ सौन्दर्यानुभूति कराना ही नहीं होता युवावस्था से पहले और बाद में भी उनका जीवन उतना ही सार्थक है जितना कि विशेष काल में।
एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक ने भी इस बात को जब स्वीकारा कि पुरूष अपनी सुविधानुसार स्त्री को दो भागों में बांट दिया है कमर के उपर स्त्री माता है, देवी है, और कमर के नीचे सिर्फ भोग्या है इस तथ्य को सुनकर सम्पूर्ण पुरुष व्यवस्था तिलमिला उठी। वैसे हर सच को सुनने के पश्चात ऐसी ही तिलमिलाहट होती है, पर किसी पुरुष के मुख से यह तथ्य सुनकर सन्तोषजनक अनुभूति हुई क्योंकि अब तक तो स्त्रियों को वस्तु मात्र के रुप में पुरुषों द्वारा ही तव्वजो दी गयी है।
स्त्री को इज्जत, मान-मर्यादा से जोड़कर देखे जाने में भी साजिश कि बू आती है। स्त्रीयों को दबाव में रखने के लिए, उन पर अंकुश बनाये रखने के लिए ही ये सारे प्रंपच रचे गये है। मै महिला आरक्षण बिल के खिलाफ शुरु से रही हूं इसका कोई फायदा महिलाओं को तो मिल नहीं पाता है। एक शब्द प्रचलित हुआ है प्रधानपति जिसमें महिलाओं को सभी कर्तव्यों और अधिकारों से वंचित रखा जाता हैं। यह है उस आरक्षण की सच्चाई वहां पुरुष अपना आधिपत्य जमाये रखता है स्त्री का नाम मात्र होता है।
हम महिलाओं को दया की जरुरत कतई नहीं है। सीता, सावित्री को तो कभी आरक्षण की जरुरत नही पड़ी ऐसा नहीं था कि उन्होंने कोई संघर्ष नहीं किया उन्होंने बिना किसी सहारे के अपने बलबूते पर स्वयं को त्याग तपस्या की देवी के रुप में स्थापित किया इसी को पुरुषों ने स्त्री का मानक मान लिया जबकि यथार्थ बस इतना है कि महिलाएं अपने आप को किसी भी परिस्थति में ढ़ाल सकती है यदि उसमें बलिदान देने की क्षमता है तो जरुरत पड़ने पर बलिदान ले भी सकती है ऐसी होती है स्त्रीयां। हर तरफ से स्त्रीयों को छला जाता है कभी सुरक्षा के नाम पर तो कभी मर्यादा के नाम पर। लेकिन सबसे बड़ी बिडंवना भी यही है कि स्त्री पुरुषों द्वारा ही ठगी जाती है और पुरुष का ही सहारा लेती है।
शायद इसलिए क्योंकि स्त्री पुरुष एक-दूसरे के पूरक होते है और एक-दूजे के बिना उनका कोइ अस्तित्व ही नहीं है। स्त्री पुरुष का एक-दुसरे का विरोधी होना प्रकृति के नियमों के खिलाफ है पर यह बात पुरुषों को भी समझनी होगी कि बिना स्त्री के उनकी कोइ पहचान नहीं है और ना ही अस्तित्व। ईश्वर ने मां बनने का गौरव सिर्फ स्त्रीयों को ही दिया है तो इसका कारण सिर्फ पुरुषों को बनाया है।
सृष्टि रचते समय जब ईश्वर ने स्त्री और पुरुष में कोइ भेदभाव नहीं किया तो हम और आप कौन होते हैं? ईश्वर की व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने वाले। यह सच है कि स्त्रीयों का शोषण पुरुषों द्वारा किया जाता है किन्तु इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि स्त्री ने अपने उपर होने वाले हर ज्यादतीय को सहर्ष स्वीकार किया है जैसा कि अरस्तू ने कहा है कि “यदि आप स्वंय को गधा घोषित कर देंगे तो सारी दुनिया अपना बोझ आपके उपर रख देगी”। इसलिए जरूरत है तो बस महिलाओं के जागृत होने की और उन सारे बोझों को उतार फेंकने की जो उसे झुका रहे है। उन्हें स्वयं सामने आना होगा स्वयं लड़ना होगा अपनी ज़रूरतों के लिए, और अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के लिए।