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Friday, March 9, 2012


मत छीनो हमारा एकांत
पहले के मुकाबले महिलाओं की आत्मनिर्भरता बढ़ी है, वे जागरूक हुई हैं, और हर क्षेत्र में अपनी जिम्मदारियों को बखूबी निभा रही हैं। लेकिन अब भी उन्हें अपने ढंग से जीने का अधिकार नहीं मिल पाया है।  मनुष्य की सबसे बड़ी जरूरतों में है – एकांत, जहाँ वह सिर्फ अपने साथ रह सके। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, पर वह एकांतप्रिय भी है। स्त्री और ज्यादा सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसे अपने एकांत की  जरूरत और ज्यादा होती है। यह एकांत असामाजिक या समाज-विरोधी नहीं होता -  यह मनुष्य होने की अनिवार्य मांग है, जहाँ वह अपने जीवन में झांक सके, अपनी इच्छानुसार कल्पनाएं कर सके और अपना बार-बार पुनराविष्कार कर सके। लेकिन स्त्री को इससे ही वंचित रखने की कोशिश होती है। स्त्री के एकांत से पुरुष को इतना डर क्यों लगता है? क्योंकि एकांत ही वह जगह है जहां स्त्री सबसे ज्यादा स्वाधीन होती है। और, यह स्त्री की स्वाधीनता है जो पुरुष को सबसे ज्यादा अखरती है। यह उसे अपनी तानाशाही में हस्तक्षेप की तरह लगता है।  
एकांत किसे नहीं चाहिए? जो महिलाएं शादीशुदा हैं, अकेली हैं – अपने चुनाव से या तलाक के बाद अथवा किसी अन्य वजह से पति-परिवार के बिना अपने बच्चों को अकेले पाल रही हैं, सभी को समय-समय पर एकांत चाहिए। इनकी भी चाहत होती है कभी बोझिल पलों के बाद, कभी जाने-अनजाने आसपास से थोड़ा अलग हो कर, तो कभी पति-बच्चों-परिवार से कुछ क्षणों के लिए  दूर होकर, कभी व्यस्त दिनचर्या से थोड़ा समय अपने लिए निकालकर सुरक्षित एकांत की। प्रतिपल किसी न किसी की आंखों के दायरे में रहने की अपनी ऊब नहीं होती क्या? इसलिए हर स्त्री उस 'स्पेस' की कामना करती है, जिसमें वह नितांत अकेली रहकर अपने अस्तित्व का रसपान कर सके। कितना आनंदपूर्ण होता है बिना टोकाटाकी के टहलना, यूँ ही चहलकदमी करना या घंटों बैठकर आसमान की ओर ताकना। यह जगह  घर की बालकनी हो सकती है, पार्क का कोई कोना भी और सड़क का किनारा भी। यहाँ तक कि किसी भीड़-भरे मॉल की कोई सूनी बेंच भी, जो औरत को यह मौका देती है कि वह आने-जाने वालों को देख सके या अपने अकेलेपन में खोने का लुत्फ उठा सके।
जगह कोई भी हो सकती है, वह मन को सकून देने वाली होनी चाहिए। शर्त इतनी-सी है कि वह महिलाओं के लिए सुरक्षित हो। किसी के एकांत में खलल देना नैतिक अपराध है। स्त्री चाहती है कि उसके साथ यह अपराध न किया जाए। उसे कभी-कभी तो अपने साथ जीने के लिए मुक्त छोड़ दिया जाए – जहाँ वह न तो किसी की बेटी हो, न बहन, न पत्नी और न  माँ। स्त्री बस स्त्री हो – अपने अधूरेपन और अपने पूरेपन के साथ। लेकिन हमारा समाज इसके लिए तैयार नहीं हो पाता और हर अकेली महिला को संदिग्ध चरित्र का मान लिया जाता है। उसके अकेले बैठने, टहलने या आसमान को तकते रहने के आपत्तिजनक मायने निकाल लिए जाते हैं। स्त्री के अकेले होने को अस्वाभाविक समझा जाता है और इस पर सवाल खड़े किए जाते हैं। जहां ये सवाल मुखर नहीं होते, पुरुषों की आँखों से झाँकते हैं, उनके घूरने से प्रगट होते हैं, उनकी कनखियों से टपकते हैं और ज्यादा उग्र हुए तो हमले की शक्ल ले लेते हैं।  
इस शक्की बिरादरी में पुलिस भी शामिल है, जिसका एक काम सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की  सुरक्षा सुनिश्चित करना है। अकेली औरत के साथ जिस पुलिस को दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए, वह दुश्मन की तरह पेश आती है। स्त्री की मदद करने से पहले वह उससे यह पूछताछ करने से नहीं चूकती कि वह अकेले वहाँ बैठकर क्या कर रही थी? कोई बताए कि अकेले बैठना या अकेले टहलना किस दंड विधान के तहत जुर्म है?  मुसीबत तब और बढ़ जाती है जब वह महिला विपन्न या श्रमिक श्रेणी की प्रतीत होती हो। तब तो उस महिला के साथ कुछ अपमानजनक सम्भावनाएं  स्वतः जुड़ जाती हैं। रक्षक को भक्षक बनते देर नहीं लगती। गरिमामय पदों को सुशोभित करने वाले लोग भी यह कहने से नहीं चूकते कि भले घर की लड़कियों को रात में आना-जाना ही नहीं चाहिए या अकेले नहीं घूमना चाहिए। अगर अब भी महिलाओं के पैरों में जंजीरें डालकर रखनी हैं, उन्हें जीने का हक नहीं देना है, तो हम किस विकास की बात करते रहते हैं?
क्या यह हैरत की बात नहीं है कि जैसे-जैसे शिक्षा का फैलाव हो रहा है, मानव अधिकारों के कशीदे काढ़े जा रहे हैं, वैसे ही वैसे स्त्री को फिर से गुलाम बनाने की इच्छा बलवती होती जाती है? हम बेहतर समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं और महिलाओं को कैद करने की सोच रहे हैं। महिलाओं के लिए ड्रेस निर्धारित कर रहे हैं ताकि वे खुद को दमनकारी परम्परा के अनुकूल ढक कर रखें।  ‘लाडली’ और ‘बेटी बचाओ अभियान’ रचने वाला समाज औरतों को दिन ढलते ही घरों के भीतर कैद करने का पक्षधर है। जो  महिलाओं के सशक्तीकरण का पुरजोर समर्थन करते हैं, वे भी शाम ढलते ही महिला को घर की चारदीवारी के भीतर ही देखना और रखना चाहते हैं। वे किसी जरूरतवश घर से बाहर अकेली निकलने वाली महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेते, बल्कि किसी महिला के साथ गलत हरकत होने पर उसे ही दोषी ठहराने से गुरेज नहीं करते। यहाँ तक कि बलात्कार जैसी जघन्य घटना के लिए भी महिला को ही दोषी मानते हैं।  जाहिर है, पुरुष समाज अपनी इस जड़ मानसिकता से मुक्त होने के लिए तैयार नहीं है कि अकेली औरत हमेशा संदिग्ध होती है। अकेलेपन को चरित्र के साथ जोड़कर एक नया और दमनमूलक सांस्कृतिक व्याकरण बनाया जा रहा है।
शहरी संस्कृति और उसके तहत विकसित हो रहा समाज, सार्वजनिक निर्माणों का ढांचा  - सभी तो लगातार महिला पर हर तरफ से नए दबाव बना रहे हैं। गरिमामय पदों को सुशोभित करने वाले लोग भी महिलाओं को यह हक देने के पक्ष में नहीं हैं कि गाहे-बगाहे ‘जब मन किया, जैसे मन किया, उस पल को जी लिया‘ । वे इसे सामाजिक मर्यादा के अनुकूल नहीं मानते। वे महिलाओं को यह प्राकृतिक अधिकार तक नहीं देना चाहते कि कहीं भी बैठ जाएँ, कहीं भी घूम लें, किसी से भी मिल लें। । वे मानते हैं, यह महिलाओं का मानवीय अधिकार नहीं, बल्कि समाज की कमजोरी है कि महिलाएँ 'उच्छृंखल' हो रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इनकी भाषा में किसी भी तरह की स्वाधीनता उच्छृखलता का ही पर्याय है। क्या यह मजाक नहीं है कि स्त्री के आचरण के बारे में हमेशा पुरुष ही तय करेगा कि स्वाधीनता कहाँ खत्म होती है और उच्छृंखलता कहां से शुरू होती है। स्त्री के लिए पुरुष ही कानून बनाता है, वही मुकदमा भी चलाता है और वही फैसला भी सुनाता है।
जो स्त्री गुलामी की जंजीरें पहनने के लिए तैयार नहीं है,  अपने व्यक्तित्व पर पुरुष के कॉपीराइट को खारिज करती हैं और अपने जीवन को अपने ढंग से परिभाषित करना चाहती हैं, उसकी नैतिकता, उनका चारित्रिक प्रोफाइल और पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनके मनोविज्ञान – यानी उसकी हर चीज पर   सवालिया निशान लगाए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि अगर  उनके साथ कोई बदसलूकी हुई तो  अकसर उनके साथ खड़ा होने वाला कोई नहीं होता।  दरअसल, हमारा सामाजिक ताना-बाना ही ऐसा है कि हम महिलाओं के पृथक अस्तित्व की कल्पना नहीं कर पाते। समाज की नजर में  वह स्त्री हमेशा गलत होती है, जो पुरुषों द्वारा खींची गई रेखाओं को स्वीकार नहीं करती! चमकते हुए शहरों में, साफ-सुथरे मुहल्लों और  सभ्य कहे जाने वाले लोगों में महिलाओं के प्रति इतनी संकीर्णता क्यों है?
जरूरत है सोच में बदलाव की। अगर हम वाकई मानव स्वतंत्रता के पक्षधर हैं, आधुनिकता के उपासक हैं और मानव अधिकारों का सम्मान करते हैं, तो हमें अपने विचार बदलने होंगे। महिलाएं अब जागरूक हो रही हैं। वे थोपे हुए विचारों  व परम्पराओं को नहीं ढोना चाहतीं। वे अपने विवेक से काम लेना चाहती हैं। वे अपनी मनुस्मृति खुद रचना चाहती हैं। उन्हें अपना समाज चाहिए तो अपना एकांत भी चाहिए।  निवेदन है कि महिलाओं की चौहद्दी तय करने के बजाय उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, उनकी गरिमा का खयाल रखा जाए ताकि वे अपनी आजादी का सही स्वाद ले सकें। स्त्रियों के सशक्तीकरण के लिए जो योजनाएं बनाई जाएं, उनका  प्रभाव  व्यवहार के धरातल पर भी दिखाई दे।  भयमुक्त समाज पुरुषों को ही नहीं, स्त्रियों को भी चाहिए। बल्कि महिलाओं को ज्यादा चाहिए, क्योंकि उनके आसपास के पुरुष ही उनकी जिंदगी में सबसे ज्यादा हस्तक्षेप करते हैं।  

परिवार का नया संपत्तिशास्त्र
सीत मिश्रा

योजना आयोग द्वारा गठित एक समिति ने महिला अधिकारों को लेकर एक क्रांतिकारी सिफारिश की है। महिला सशक्तीकरण पर काम कर रही इस समिति का सुझाव है कि विवाह के बाद अर्जित चल-अचल सम्पत्ति पर पति-पत्नी का मालिकाना हक बराबर हो। फिर यह संपत्ति पति-पत्नी में चाहे जिसने खरीदी हो। पारिवारिक जीवन से संबंधित कानून में बदलाव लाने की सिफारिश करते हुए, समिति ने  'राइट टू मैरिटल प्रॉपर्टी एक्ट' बनाने का सुझाव दिया है। इसके तहत तलाक की नौबत आने पर पति-पत्नी के बीच संपत्ति का बँटवारा बराबर-बराबर होगा। समिति की राय में, यह कानून सभी समुदायों पर लागू होना चाहिए।
वैवाहिक जीवन में आर्थिक बराबरी का विचार हर तरह से न्यायसंगत है। जब परिवार पति-पत्नी से बनता है, दोनों मिल कर घर को चलाते हैं, तो परिवार की आर्थिक स्थिति में भी दोनों का बराबर साझा होना चाहिए। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अधिकांश मामलों में पत्नी घर की देखभाल करती है और पति नौकरी या व्यापार करता है। मूल बात यह है कि परिवार एक भावनात्मक और कानूनी इकाई होने के साथ-साथ एक आर्थिक इकाई भी है। इस इकाई के भीतर समानता नहीं होगी, तो पति-पत्नी के रिश्तों में एक बुनियादी गैरबराबरी आ जाएगी, जिसके रहते वैवाहिक जीवन कभी भी सुखी नहीं हो सकता। परिवार के भीतर पति और पत्नी की अलग-अलग भूमिका को ज्यादा से ज्यादा श्रम विभाजन के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। इस विभाजन में स्त्री की भूमिका या श्रम को हीन मान कर चलना स्त्री व्यक्तित्व का अवमूल्यन करना है। अगर हमें समाज में किसी तरह की तानाशाही मंजूर नहीं है, तो हमें परिवार को भी ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक बनाना होगा। हमें भूलना नहीं चाहिए कि आर्थिक बराबरी किसी भी समतामूलक व्यवस्था की पहली सीढ़ी है।
भारतीय समाज में शादी को जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। यह स्त्री और पुरुष, दोनों के लिए एक नई जिंदगी की शुरुआत होती है। विवाह के बाद वे जीवन भर के लिए एक आत्मीय बंधन में बंध जाते हैं। सात फेरों के साथ ही वे एक-दूसरे के जिंदगी भर के सुख-दुख के साथी बन जाते हैं। यानी हर चीज में बराबरी का दर्जा। लेकिन आय और संपत्ति में गैरबराबरी की स्थिति पत्नी को  परिवार के भीतर दोयम दर्जा प्रदान करती है। । । भारतीय संस्कारों के अनुसार, शादी के बाद पति का घर ही स्त्री का घर माना जाता है,  लेकिन अकसर यह सिर्फ कहने के लिए होता है। करनी से इसका  दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है।  पति जब तक मेहरबान है तब तक वह पत्नी का घर है ,लेकिन स्थिति विपरीत होने पर बड़ी आसानी से महिला को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है – उसे बेघर कर दिया जाता है।  
इस असमान स्थिति के कारण विवाह स्त्री के लिए एक कैदखाना  बन जाता है। पति चाहे जैसा भी हो, शादी को बचाने की सारी जिम्मेदारी पत्नी  पर आ गिरती है।  आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में तलाक स्त्री के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना है। इसलिए विवाह को बचाने के लिए वह सब कुछ सहने को लाचार है। इससे पुरुष की निरंकुशता को बढ़ावा मिलता है। इसे रोकने और स्त्री के व्यक्तित्व को खिलने देने का एक सहज तरीका यह है कि पति की आय और संपत्ति में पत्नी का बराबर का हिस्सा हो। इसी तर्क से पत्नी की संपत्ति में पति की स्वाभाविक साझेदारी हो जाती है। जाहिर है, समानता की यह व्यवस्था तभी कायम हो सकती है जब इसे कानून का दर्जा दे दिया जाए।
लेकिन इतना क्रांतिकारी कानून चुटकियों में नहीं बनाया जा सकेगा। हमारे समाज में कितने ऐसे पुरुष हैं जो अपनी संपत्ति में अपनी पत्नी को बराबर का हिस्सा देना चाहेंगे? हमारे सभी संस्कार विषमता पर आधारित हैं। इन संस्कारों के रहते हुए किन्हीं वजहों से दोनों के बीच तलाक होता है तो कितने पुरुषों का मन संपत्ति का आधा हिस्सा पत्नी को देने के लिए  तैयार होगा? जाहिर है, स्त्री-पुरुष संबंधों में इतना मूलभूत परिवर्तन ला पाना एक लंबा और कठिन संघर्ष है। अभी तो हम सिर्फ यह संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि चलो, सही दिशा में विचार-विमर्श की शुरुआत तो हो ही गई है।
लेकिन यह कोई असंभव कार्य भी नहीं है। गोवा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जहाँ पुर्चगीज शासन के दौरान बनाया गया यह कानून अभी भी जारी है कि विवाह के पहले और विवाह के बाद अर्जित सारी संपत्ति में पति-पत्नी का समान हिस्सा होगा। आजाद होने के बाद गोवा के कानून सिस्टम में बहुत-से परिवर्तन किए गए हैं, पर विवाह, परिवार आदि से संबंधित कानूनों को छेड़ा नहीं गया है। गोवा में पत्नी की इच्छा के विरुद्ध पति केवल आधी संपत्ति का ही जैसा चाहे उपयोग कर सकता है। वसीयत भी वह अपने हिस्से की संपत्ति का ही लिख सकता है। तलाक के बाद पति की आधी आमदनी पत्नी की हो जाती है। समानता की इसी कानूनी व्यवस्था के चलते गोवा में स्त्री की हैसियत पुरुष के बराबर है।  पत्नी-पत्नी के बीच जो समानता गोवा में संभव है, उसे देश के बाकी हिस्सों में संभव क्यों नहीं किया जा सकता?