नोटः यह आलेख हिंदी भाषा के सबसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'जनसत्ता' के नियमित कॉलम 'दुनिया मेरे आगे' में दिनांक 19 दिसंबर 2009 को प्रकाशित हो चुका है।
कुछ पाने की उम्मीद लिए मैं भी शामिल हो गयी दिल्ली के बाजार में। यहां आप जोड़-तोड़ करके कुछ पहचान तो पा लेते हैं लेकिन इस अंधी दौड़ में शामिल होकर अपना वजूद खो देते हैं। परिवार, लोगों दोस्तों, और पड़ोसियों ने बहुत समझाया पर जिद्द थी कि बस.. मुझे जाना है। कई लोगों ने मुझे अपने अनुभव सुनाए, मुझे सतर्क किया लेकिन हमेशा लगता रहा कि उनके अनुभव में सच्चाई नहीं है। मैं हरदम मानती रही कि ‘अच्छे के साथ हमेशा अच्छा ही होता है’ और इसी सिद्धांत को लेकर मैं चल पड़ी अंजाने सफर पर, अंजाने लोगों के बीच में। दिल्ली हर कदम पर आजमा रही थी कहीं डराती तो कहीं उम्मीदें जगा रही थी। दिल्ली की दौड़-धूप ने मुझे इस बात का एहसास करा दिया कि यहां सम्भावनाएं बहुत हैं पर सुकुन नहीं। इसी तर्ज पर चलती है दिल्ली। मेरी नजर में यही दिल्ली की वास्तविक पहचान है। मुझे मेरा लक्ष्य पता था पर उसके अभी भी सही रास्ते की तलाश जारी थी। दिल्ली की दौड़ती-भागती जिन्दगी बड़ी अजीब लगती है।
नौकरी की तलाश में इधऱ-उधर भटक रही थी। अधिकतर लोगों का बस यही जबाव होता ‘अभी जगह नहीं है’ कुछ लोग टाल-मटोल करके जता देते थे कि ‘आप चले जाइये यहां से हमारा समय बर्बाद मत कीजिए’। संयोग से मुझे भी दिल्ली में एक गॉड फॉदर मिल गये उन्होंने बड़े गौर से मेरी समस्या सुनी और उसे सुलझाने के लिए अपने दोस्त के ऑफिस मुझे भेज दिया। ऑफिस जाकर मैंने तमाम औपचारिकताएं निभाई घंटे भर के लम्बे इन्तजार के बाद श्रीमान जी ने मुझे अन्दर बुलाया सामने बैठने का इशारा करके वे अपनी फाइलों में व्यस्त हो गये। मैंने उनपर एक भरपूर नजर डाली। उनकी उम्र शायद 50 साल से उपर थी। आज क्या होगा के उधेड़बुन में पड़ी मैंने उनके चेहरे का पूरा निरीक्षण कर लिया था। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने काम से ध्यान हटाकर मुझसे पूछा, “तो तुम काम करने के लिए तैयार हो” मैंने सिर हिलाकर सहमति जताई इतनी ठोकरें खाने के बाद मेरे अन्दर निराशा घर कर गयी थी मैं हर बात को नकारात्मक ढ़ग से लेने लगी थी। ऐसे में एक ठौर मिल रहा था मैं उसे ठुकराना नहीं चाहती थी। मैंने अपने लिखे हुए व्यंग्य ,कविताओं और कहानियों की कतरनें उनकी ओर बढ़ा दीं। उन्होंने कहा, “इसकी कोई आवश्यकता नहीं है” मैं थोड़ी चकित हुई मैंने विस्मय से पूछा, “क्यों सर? यह सब देखकर आप इस बात का अंदाजा लगा सकते है कि मैं कैसा लिखती हूं और मैं आपकी संस्था के लिए किस प्रकार काम कर सकती हूं”। मेरी बातों को अनसुना करते हुए उन्होंने कहा, “ठीक है ठीक है यह सब छोड़ों बस मुझे खुश रखो यह तुम्हारा काम है” अपनी हरकतों से उन्होंने यह जता दिया कि उनके इरादे नेक नहीं हैं। उनकी बातों पर मुझे गुस्सा आ गया और जो मन में आया मैंने उन्हें भला-बुरा कहा। मेरे हलक से शब्द नहीं फुट रहे थे मैं पसीने से नहा उठी। उस शख्स शायद को इन बातों की आदत हो चुकी थी। उसने बड़े ही इत्मीनान से मेरी बात सुनी और कहा, ‘यदि तुम्हें अपनी शील, मान-मर्यादा की इतनी ही चिन्ता थी तो तुम्हें अपने घर से निकलना ही नहीं चाहिए था। जिन्दगी भर चूहे के उसी बिल में पड़ी रहती, तुम्हें बाहर आने की जरुरत ही नहीं थी या फिर.......तुम्हारे लिए दुसरा रास्ता खुला है।’ उन्होंने बाहें फैलाते हुए कहा “जो तुम चाहती हो वो सारी खुशी तुम्हें यहां मिलेगी पर थोड़ी खुशी पर हमारा हक भी तो बनता है” इसके बाद उनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान छा गई। मैं अन्दर ही अन्दर टूट रही थी। खुद के बिखर जाने के डर से मैने झट से अपनी सारी चीजें समेटीं और बाहर की ओर निकल पड़ी। एक अजीब सी बदहवासी और छटपटाहट थी मेरे भीतर । अजीब सी बेचैनी जो मेरे पूरे अस्तित्व को झकझोर रही थी। समूचा अस्तित्व जैसे बूंद-बूंद पिघलने लगा। परिवार, दोस्त, रिश्तेदार फिर सामने आकर खड़े हो गए। सारी बातें स्मृति पटल पर फिर से आ गईं। ‘अच्छे के साथ हमेशा अच्छा ही होता है’ सिध्दान्त जैसे धराशायी हो गया था। खुद को बुध्दिजीवी वर्ग के कहलाने वालों ने इस सिध्दान्त की धज्जियां उड़ा दी हैं। एक बड़ी पराजय की पीड़ा, अन्दर तक झकझोर देने वाली तिलमिलाहट और बुध्दिजीवियों के लिए अब बस एक कड़वाहट मात्र रह गयी थी। भले ही बहुत कुछ बदल गया हो पर आज भी लड़कियों के प्रति पुरुष समाज का नजरिया नहीं बदला है। इस सच का सामना मुझे दिल्ली में आकर हुआ। गावों, कस्बों से कामयाबी के सपने लिए आने वाली न जाने कितनी लड़कियों इस सच का सामना किया होगा।
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