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Monday, September 9, 2013

कुंठा की जड़ें



स्त्रियों के साथ हो रही यौनिक हिंसा, छेड़छाड़ रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गये हैं। इस बार स्त्रियों के लिए सुरक्षित और स्वतंत्र जिंदगी गुजर-बसर करने का दावा करने वाली आम्ची मुम्बई में भी सामुहिक बलात्कार की घटना को अंजाम दिया गया। इस हादसे ने बीते साल देश की दामिनी के साथ हुई हैवानियत को फिर से जेहन में तरोताजा कर दिया है। इस बार चोट ज्यादा घातक है, क्योंकि अमूमन पत्रकारों से दामन बचाने वाले खूंखारों ने एक पत्रकार को ही अपनी हवस का शिकार बनाया है।
जानकारी के मुताबिक एक पत्रकार अपने साथी के साथ एक खबर को कवर करने निकली। उस कर्तव्यनिष्ठ और आत्मविश्वास से भरी महिला पत्रकार से पहले तो यौनकुंठित पुरुषों ने झगड़ा किया लेकिन जब उस बहस में उससे जीत नहीं पाए तो बदले की कार्रवाई में युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया। यह वाकया बिलकुल वैसा ही था जैसा कि दिल्ली में हुआ था, उन्हें किसी का भय नहीं था। ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि यह उनके लिए सहज कर्म था जिसका कभी विरोध ही नहीं हुआ है। खबरों के मुताबिक उन्होंने पहले भी दो लड़कियों के साथ बलात्कार किया था उन महिलाओं ने विरोध करना तो दूर उसके खिलाफ कुछ भी नहीं किया। जाहिर है इससे उनके हौसले और बुलंद हुए होंगे, जिसका परिणाम सबके सामने है।
इस तरह की करतूतें अक्सर दब जाती हैं, कथित इज्जत के फेर में, कभी समाज के डर से, कभी अपराधियों का खौफ होता है, और कभी-कभी न्याय की आस नहीं होती। लेकिन जब इस तरह की दरिंदगी सामने आती है तो सभी वर्गों द्वारा बढ़-चढ़ कर उसकी निंदा की जाती है। संसद से सड़क तक जमकर बहस होती है, दोषियों को सजा दिलाने के लिए प्रदर्शन किये जाते हैं, कठोर से कठोर कानून बनाकर ऐसी वारदातों पर अंकुश लगाने की सरकार से गुजारिश की जाती है। सरकार की ओर से भी हर सम्भव कार्रवाई का आश्वासन दिया जाता है लेकिन जैसे-जैसे दिन, हफ्ते, महीने, गुजरते हैं, स्त्री के खिलाफ हुए अपराध का गुस्सा भी शांत होने लगता है और लोग अपने जीवन की व्यस्तता में रम जाते हैं। फिर यह गूंज तभी सुनाई देती है जब ऐसा वाकया दुबारा सामने आता है। कुछ दिनों बाद फिर सब कुछ जस का तस मानो कुछ हुआ ही न हो। महज दिखावे के लिए हम चिल्लाते हैं फिर आश्वासन की घुट्टी पाकर राहत की सांस लेते है।
शर्मसार करती इस तरह की घटनाओं से सिर्फ देश के नहीं बल्कि विदेशी भी चिन्तित हैं, यही वजह कि ब्रिटेन सरकार द्वारा भारत यात्रा पर आने वाले अपने नागरिकों को दो सलाह दी गईं थीं कि उन्हें भारत में समूह में रहने पर भी यौन हिंसा के खिलाफ बहुत सतर्क रहना चाहिए और दिन में भी अकेले नहीं निकलना चाहिए। अपनी संस्कृति और संस्कारों का ढोल पीटने वाले समाज को आईना दिखाती ये सलाहें सब कुछ कहती हैं, लेकिन इसका कोई असर होगा या इससे सुधार की गुंजाइश की उम्मीद करना निरर्थक है। इस आरोप का विरोध नहीं किया जा सकता क्योंकि अतिथि देवो भवको मानने वाले इस देश में स्विस राजनयिक के साथ दुष्कर्म किया गया, आगरा में विदेशी युवती के कमरे में उसके होटल के मालिक ने घुसने की घटना भी सबके सामने है।
अत्याचार सिर्फ वहीं नहीं होता, जो कानून की दफाओं में दर्ज हो। हमारे देश में नारी की स्थिति महज नारों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। सारा सशक्तिकरण, सारी आजादी, सारा सम्मान इज्जत, बराबरी का हक सिर्फ किताबों में ही धूल खा रहे हैं, इनका जमीनी हकीकत से कोई लेना देना नहीं है। स्त्री को देवी का भी दर्जा दे दिया है लेकिन वह सिर्फ कलेडर में ही शोभायमान है। जमीनी हकीकत में तो वह सिर्फ मांस का लोथड़ा भर है, जो पुरुषों के नोचने-खसोटने भर के लिए बनी है। जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है, अपना कोई वजूद नहीं है। वह तब तक आजाद है जब तक पुरुष चाहे, वह तब तक खुश रह सकती है जब तक पुरुष उसमें बाधा न डाले। समाजों और समुदायों में इसी मर्दानगी को मजबूत किया जाता है। इसी से स्त्रियों को पुरुषत्व का बोध कराया जाता है, और इस कुलीन परम्परा को आगे बढ़ाया जाता है। लिहाजा, मर्द अगर ठान ले तो काबू में न आने वाली या पुरुषों के अनुकूल न रहने वाली स्त्री से बलात्कार कर अपनी कुंठा को निकालता है।
सदियों से स्त्री हक की लड़ाई मुसलसल जारी है, लेकिन इसके क्या मायने निकल पाए हैं अब तक?  वास्तव में इस तरह की वारदातों के लिए हम आप सभी दोषी होते हैं, इसमें हमारा कानून, न्याय प्रक्रिया हो रही देरी, समाज द्वारा की जा रही अहवेलना, पारिवारिक दबाव, स्त्रियों की दोयम दर्जे की स्थिति, स्त्रियों के प्रति लोगों की सोच, अपराधियों का बढ़ता खौफ चुप्पी साधने के लिए मजबूर करता है। लेकिन यही चुप्पी बदमाशों को हौसला देती है। उन आरोपियों ने ऐसी करतूतें पहले भी की थी लेकिन उनका विरोध नहीं किया गया। इस चुप्पी के पीछे सिर्फ सामाजिक संवेदनहीनता ही नहीं, बल्कि अपराधियों का खौफ है जिन्होंने कानून व्यवस्था को पंगु बन रखा है। हमारी सामाजिक बनावट इस तरह से की गयी है जहाँ स्त्रियों के खिलाफ हो रही हिंसा के लिए स्त्री ही जिम्मेदार होती है। बलात्कार होने की दशा में तो बिडंवना का कहीं कोई अंत ही नहीं। पीड़िता ही शर्म और कलंक का कारण मानी जाती है, जबकि अपराधियों में इसका भान तक नहीं होता। समाज ही स्त्री के भीतर अपराधबोध पैदा करता है। लिहाजा जब तक इस तरह की हिंसा से उपजी शर्म और कलंक का व्याकरण पीड़िता से बदलकर अपराधियों तक नहीं जाएगा, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। वे यह जानकर यौन हिंसा करने से बाज नहीं आएंगे कि उनके द्वारा किए गए कुकृत्यों की जलालत उन्हें उम्र भर नहीं झेलनी पड़ेगी बल्कि उनके द्वारा शिकार की गई स्त्री के शरीर और आत्मा पर उसके निशान होंगे जो कभी नहीं हटेंगे। क्योंकि कत्ल होने वाले के घर में कुछ दिन तक ही मातम होता है, लेकिन बलात्कार का दर्द उम्र भर सालता है। इसलिए जरूरत है कि यौन हिंसा के खिलाफ सहनशीलता पूरी तरह से खत्म की जाए। हालांकि यह इस समाज के लिए ज्यादा मुश्किल है क्योंकि बलात्कार का आरोप लगने के बाद और सांसदों के तमाम विरोधों के बाद भी राज्यसभा के उपसभापति अपने पद पर जमे हुए हैं। लेकिन इन सबके बाद भी कोशिश तो करनी ही होगी क्योंकि चुप्पी से किसी समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता है।


Thursday, August 22, 2013

छोटी चिनगारियाँ - बड़े बदलाव


सामूहिक बलात्कार कांड के बाद स्वतःस्फूर्त उभरा जनाक्रोश जितना हैरान करता हैउतना ही आश्वस्त भी  बलात्कार औऱ स्त्रियोंके खिलाफ होने वाले अन्य अपराधों से निपटने के लिए कड़े कानूनों की मांग अभी जितने मुखर रूप से उठी हैपहले कभी नहीं उठीथी  यद्यपि हमारे देश में स्त्री के खिलाफ हिंसा के तमाम उदाहरण हमेशा ही मौजूद रहे हैं  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो केमुताबिक 2011 में बलात्कार के चौबीस हजार दो सौ छह मामले दर्ज हुए। महज दिल्ली में ही पांच सौ बहत्तर दुष्कर्म के मामलेसामने आए। दिल्ली सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 2011 में दिल्ली की जिला अदालतों में बलात्कार के कुल साढ़े छह सौ मामलेनिपटाए गए  और उनमें महज एक सौ निन्यानबे को ही दोषी करार दिया जा सका  दुष्कर्म के जघन्य मामले हमेशा से ही सामनेआते रहे हैंलेकिन अब तक इस तरह के मामलों में कोई आवाज नहीं उठीकोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई  यह छोटी-सी चिनगारी बड़े बदलाव की भूमिका बन सकती है।
अमेरिका की रोजा पार्क्सईरान की निदा आगा सोल्तानीमिस्र की अर्धनग्न लड़कीपाकिस्तान में मलाला यूसुफजई और भारत मेंगैंगरेप की शिकार 23 साल की छात्रा  ये महज नाम भर नहीं हैंबल्कि हालिया वक्त में दुनिया के कई मुल्कों में व्यवस्था केखिलाफ बदलाव की लहर के नए प्रतीक के रूप में उभरी हस्तियां हैं  दुनिया में ऐसी मामूली चिनगारियों से उपजे बड़े आंदोलनों केइतिहास का एक लंबा सिलसिला है। 1955 में 42 साल की रोजा पार्क्स अमेरिका के मांटगोमरी इलाके में  बस में चढ़ीं और श्वेत लोगोंके लिए निर्धारित सीटों को छोड़कर अलग बैठ गईं  रोजा पार्क्स मजदूर थीं, वह  कपड़े बनाने की फैक्ट्री में काम करती थीं  बसभर जाने के बाद एक श्वेत व्यक्ति बस में चढ़ा। नियम के मुताबिकअश्वेतों को श्वेत नागरिक के लिए सीट छोड़नी पड़ती थी,लेकिन पार्क्स ने शांति से सीट छोड़ने से मना कर दिया  पार्क्स गिरफ्तार हुईं और तत्कालीन कानून के मुताबिक उनपर मुकदमाभी चला  लेकिन पार्क्स का सीट  छोड़ना मार्टिन लूथर किंग को हिला गया  और इसके बाद अमेरिका में रंग-भेद खत्म करने कीआंधी चली, जिसने  रंग भेद को खत्म ही कर दिया 
परिवर्तन की नई नायिका निदा आगा सुल्तानी की 2009 में ईरान में चुनाव के बाद में सत्ता विरोधी प्रदर्शनों के दौरान गोली लगने सेमौत हो गई  26 साल की निदा की मौत की तस्वीरों ने पूरे ईरान को हिला दिया और व्यवस्था-विरोधी आंदोलन मुखर हो उठा इसी तरह 2011 में काहिरा में सत्ता विरोधी प्रदर्शन के दौरान सैनिकों की बर्बरता से अर्धनग्न हुई लड़की की तस्वीर और वीडियो नेपूरे मिस्र को आंदोलित कर दिया   महिला अधिकारों के समर्थन में एक नई बयार चली  मलाला यूसुफजई अभी किसी को भूलीनहीं होंगी  स्वात घाटी में 14 साल की मलाला यूसुफजई को तालिबानी विचारों की मुखालफत के कारण गोली मार दी गई गोलीलगने से वह बुरी तरह घायल हो गई  लेकिन इसके बाद मलाला यूसुफजई के समर्थन में महज पाकिस्तान से ही नहींबल्कि पूरीदुनिया से आवाज उठी। कुछ समय पहले शिव सेना प्रमुख बालठाकरे के मौत के बाद शाहीन और रेनू ने फेसबुक पर टिप्पणी की शाहीन और रेनू की टिप्पणी को आपत्तिजनक बताते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया  इसके बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कोलेकर उठी आवाज और प्रदर्शनों के बाद रेनू और शाहीन की रिहाई हो गई 
और अब 2012 के अंत में सामूहिक दुष्कर्म के मामले ने आमजन को हिला कर रख दिया  हर जगह प्रदर्शन हुएइसके लिए किराएकी भीड़ इक्कठा नहीं की गई  इस आक्रोश को जन्म नहीं दिया गयाइसे भड़काया नहीं गयाइसे कुरेदा नहीं गया  लोग किसीयोजना के तहत एकत्र नहीं हुएबल्कि हर शख्स ने सामूहिक दुष्कर्म से पीड़ित लड़की के दर्द को महसूस किया  इस आंदोलन मेंमहिलाओं और  पुरुषों  ने बराबरी की हिस्सेदारी की  पानी की बौझारों से आक्रोश की आग को बुझाने की कोशिश की गई लाठी-डंडे चलाए गए और उसपर सर्दी का सितम भी जारी रहा। लेकिन आंदोलन में कोई कमी नहीं आईजोश शिथिल नहीं पड़ादृढ़और मजबूत इरादों से लोग डटे रहे। केवल दिल्ली में ही नहींबल्कि जगह जगह इसकी धधक को महसूस किया गया  हर आम औरखास इस आंदोलन से जुड़ा  बॉलीवुड सड़कों पर उतर आयासांसदों और नेताओं ने भी इसकी निंदा की हर किसी ने अपराधी कोकड़ा दंड देने की मांग की 
इस आंदोलन को लेकर कई तरह की आशंकाएं भी रहीं  मसलनयह अभूतपूर्व उमड़ा आक्रोश बिना किसी ठोस नतीजे के तिरोहित हो जाएआंदोलन को रचनात्मक दिशा की दरकार हैराजनीतिक वर्ग के प्रबुध्द लोगों को सक्रिय होकर इस आंदोलन को तार्किकपरिणति देनी चाहिए  इतना ही नहींलोगों का यह भी कहना था कि तात्कालिक भावावेश के कारण लोग गंभीर तर्क वितर्क करनेकी स्थिति में नहीं हैं इसलिए कठोर कानून बनाने की मांग की जा रही है। जो भी हो, इसमें क्या शक है कि इस आंदोलन ने पूरेदेश को हिला दिया  हालांकि देशव्यापी जनाक्रोश के दौरान भी देश के विभिन्न हिस्सों से बलात्कार की खबरें आऩे का सिलसिलाबना रहा  फिर भी एक सकारात्मक पहल की उम्मीद लिए देश के बड़े तबके ने एकजुट होकर एक दिशा में सोचते हुए कदम आगेबढ़ाया और तमाम मुश्किलात से रूबरू होते हुए भी डटे रहे 
विशेषज्ञों की नजर में दुनिया में बदलाव का यह नया ट्रेंड और एक नए तरह की सामाजिक क्रांति है  सामूहिक दुष्कर्म कांड ने लोगोंके गुस्से को वजह दी हैइस वारदात ने कई को रास्ते दिखाए हैं । बदलाव की इस हवा ने एक नई चेतना को जन्म दिया है।  लोगखड़े हो रहे हैंविरोध जता रहे हैंलोग अपने आस-पास के लिए सचेत हुए हैं  भारत में सड़कों पर हो रहा प्रदर्शन में महिलाओं कीहिस्सेदारी इसी वैश्विक लहर की निशानी है 
बिना किसी राजनीतिक संयोजन और आह्वान के सड़कों पर उतरा शिक्षित मध्य वर्ग बदलाव के नए आग्रह लेकर आया है  यह वर्गव्यवस्था में सार्थक बदलाव की मांग कर रहा है। उम्मीद करनी चाहिए कि  उम्मीदों की लौ का यह आंदोलन महिलाओं कीसुरक्षा के लिए सत्ताकानूनऔर समाज की सोच में बदलाव का सूत्रधार बनेगा।