मत छीनो हमारा एकांत
पहले के मुकाबले महिलाओं की आत्मनिर्भरता बढ़ी है, वे जागरूक हुई हैं, और हर क्षेत्र में अपनी जिम्मदारियों को बखूबी निभा रही हैं। लेकिन अब भी उन्हें अपने ढंग से जीने का अधिकार नहीं मिल पाया है। मनुष्य की सबसे बड़ी जरूरतों में है – एकांत, जहाँ वह सिर्फ अपने साथ रह सके। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, पर वह एकांतप्रिय भी है। स्त्री और ज्यादा सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसे अपने एकांत की जरूरत और ज्यादा होती है। यह एकांत असामाजिक या समाज-विरोधी नहीं होता - यह मनुष्य होने की अनिवार्य मांग है, जहाँ वह अपने जीवन में झांक सके, अपनी इच्छानुसार कल्पनाएं कर सके और अपना बार-बार पुनराविष्कार कर सके। लेकिन स्त्री को इससे ही वंचित रखने की कोशिश होती है। स्त्री के एकांत से पुरुष को इतना डर क्यों लगता है? क्योंकि एकांत ही वह जगह है जहां स्त्री सबसे ज्यादा स्वाधीन होती है। और, यह स्त्री की स्वाधीनता है जो पुरुष को सबसे ज्यादा अखरती है। यह उसे अपनी तानाशाही में हस्तक्षेप की तरह लगता है।
एकांत किसे नहीं चाहिए? जो महिलाएं शादीशुदा हैं, अकेली हैं – अपने चुनाव से या तलाक के बाद अथवा किसी अन्य वजह से पति-परिवार के बिना अपने बच्चों को अकेले पाल रही हैं, सभी को समय-समय पर एकांत चाहिए। इनकी भी चाहत होती है कभी बोझिल पलों के बाद, कभी जाने-अनजाने आसपास से थोड़ा अलग हो कर, तो कभी पति-बच्चों-परिवार से कुछ क्षणों के लिए दूर होकर, कभी व्यस्त दिनचर्या से थोड़ा समय अपने लिए निकालकर सुरक्षित एकांत की। प्रतिपल किसी न किसी की आंखों के दायरे में रहने की अपनी ऊब नहीं होती क्या? इसलिए हर स्त्री उस 'स्पेस' की कामना करती है, जिसमें वह नितांत अकेली रहकर अपने अस्तित्व का रसपान कर सके। कितना आनंदपूर्ण होता है बिना टोकाटाकी के टहलना, यूँ ही चहलकदमी करना या घंटों बैठकर आसमान की ओर ताकना। यह जगह घर की बालकनी हो सकती है, पार्क का कोई कोना भी और सड़क का किनारा भी। यहाँ तक कि किसी भीड़-भरे मॉल की कोई सूनी बेंच भी, जो औरत को यह मौका देती है कि वह आने-जाने वालों को देख सके या अपने अकेलेपन में खोने का लुत्फ उठा सके।
जगह कोई भी हो सकती है, वह मन को सकून देने वाली होनी चाहिए। शर्त इतनी-सी है कि वह महिलाओं के लिए सुरक्षित हो। किसी के एकांत में खलल देना नैतिक अपराध है। स्त्री चाहती है कि उसके साथ यह अपराध न किया जाए। उसे कभी-कभी तो अपने साथ जीने के लिए मुक्त छोड़ दिया जाए – जहाँ वह न तो किसी की बेटी हो, न बहन, न पत्नी और न माँ। स्त्री बस स्त्री हो – अपने अधूरेपन और अपने पूरेपन के साथ। लेकिन हमारा समाज इसके लिए तैयार नहीं हो पाता और हर अकेली महिला को संदिग्ध चरित्र का मान लिया जाता है। उसके अकेले बैठने, टहलने या आसमान को तकते रहने के आपत्तिजनक मायने निकाल लिए जाते हैं। स्त्री के अकेले होने को अस्वाभाविक समझा जाता है और इस पर सवाल खड़े किए जाते हैं। जहां ये सवाल मुखर नहीं होते, पुरुषों की आँखों से झाँकते हैं, उनके घूरने से प्रगट होते हैं, उनकी कनखियों से टपकते हैं और ज्यादा उग्र हुए तो हमले की शक्ल ले लेते हैं।
इस शक्की बिरादरी में पुलिस भी शामिल है, जिसका एक काम सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। अकेली औरत के साथ जिस पुलिस को दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए, वह दुश्मन की तरह पेश आती है। स्त्री की मदद करने से पहले वह उससे यह पूछताछ करने से नहीं चूकती कि वह अकेले वहाँ बैठकर क्या कर रही थी? कोई बताए कि अकेले बैठना या अकेले टहलना किस दंड विधान के तहत जुर्म है? मुसीबत तब और बढ़ जाती है जब वह महिला विपन्न या श्रमिक श्रेणी की प्रतीत होती हो। तब तो उस महिला के साथ कुछ अपमानजनक सम्भावनाएं स्वतः जुड़ जाती हैं। रक्षक को भक्षक बनते देर नहीं लगती। गरिमामय पदों को सुशोभित करने वाले लोग भी यह कहने से नहीं चूकते कि भले घर की लड़कियों को रात में आना-जाना ही नहीं चाहिए या अकेले नहीं घूमना चाहिए। अगर अब भी महिलाओं के पैरों में जंजीरें डालकर रखनी हैं, उन्हें जीने का हक नहीं देना है, तो हम किस विकास की बात करते रहते हैं?
क्या यह हैरत की बात नहीं है कि जैसे-जैसे शिक्षा का फैलाव हो रहा है, मानव अधिकारों के कशीदे काढ़े जा रहे हैं, वैसे ही वैसे स्त्री को फिर से गुलाम बनाने की इच्छा बलवती होती जाती है? हम बेहतर समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं और महिलाओं को कैद करने की सोच रहे हैं। महिलाओं के लिए ड्रेस निर्धारित कर रहे हैं ताकि वे खुद को दमनकारी परम्परा के अनुकूल ढक कर रखें। ‘लाडली’ और ‘बेटी बचाओ अभियान’ रचने वाला समाज औरतों को दिन ढलते ही घरों के भीतर कैद करने का पक्षधर है। जो महिलाओं के सशक्तीकरण का पुरजोर समर्थन करते हैं, वे भी शाम ढलते ही महिला को घर की चारदीवारी के भीतर ही देखना और रखना चाहते हैं। वे किसी जरूरतवश घर से बाहर अकेली निकलने वाली महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेते, बल्कि किसी महिला के साथ गलत हरकत होने पर उसे ही दोषी ठहराने से गुरेज नहीं करते। यहाँ तक कि बलात्कार जैसी जघन्य घटना के लिए भी महिला को ही दोषी मानते हैं। जाहिर है, पुरुष समाज अपनी इस जड़ मानसिकता से मुक्त होने के लिए तैयार नहीं है कि अकेली औरत हमेशा संदिग्ध होती है। अकेलेपन को चरित्र के साथ जोड़कर एक नया और दमनमूलक सांस्कृतिक व्याकरण बनाया जा रहा है।
शहरी संस्कृति और उसके तहत विकसित हो रहा समाज, सार्वजनिक निर्माणों का ढांचा - सभी तो लगातार महिला पर हर तरफ से नए दबाव बना रहे हैं। गरिमामय पदों को सुशोभित करने वाले लोग भी महिलाओं को यह हक देने के पक्ष में नहीं हैं कि गाहे-बगाहे ‘जब मन किया, जैसे मन किया, उस पल को जी लिया‘ । वे इसे सामाजिक मर्यादा के अनुकूल नहीं मानते। वे महिलाओं को यह प्राकृतिक अधिकार तक नहीं देना चाहते कि कहीं भी बैठ जाएँ, कहीं भी घूम लें, किसी से भी मिल लें। । वे मानते हैं, यह महिलाओं का मानवीय अधिकार नहीं, बल्कि समाज की कमजोरी है कि महिलाएँ 'उच्छृंखल' हो रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इनकी भाषा में किसी भी तरह की स्वाधीनता उच्छृखलता का ही पर्याय है। क्या यह मजाक नहीं है कि स्त्री के आचरण के बारे में हमेशा पुरुष ही तय करेगा कि स्वाधीनता कहाँ खत्म होती है और उच्छृंखलता कहां से शुरू होती है। स्त्री के लिए पुरुष ही कानून बनाता है, वही मुकदमा भी चलाता है और वही फैसला भी सुनाता है।
जो स्त्री गुलामी की जंजीरें पहनने के लिए तैयार नहीं है, अपने व्यक्तित्व पर पुरुष के कॉपीराइट को खारिज करती हैं और अपने जीवन को अपने ढंग से परिभाषित करना चाहती हैं, उसकी नैतिकता, उनका चारित्रिक प्रोफाइल और पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनके मनोविज्ञान – यानी उसकी हर चीज पर सवालिया निशान लगाए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि अगर उनके साथ कोई बदसलूकी हुई तो अकसर उनके साथ खड़ा होने वाला कोई नहीं होता। दरअसल, हमारा सामाजिक ताना-बाना ही ऐसा है कि हम महिलाओं के पृथक अस्तित्व की कल्पना नहीं कर पाते। समाज की नजर में वह स्त्री हमेशा गलत होती है, जो पुरुषों द्वारा खींची गई रेखाओं को स्वीकार नहीं करती! चमकते हुए शहरों में, साफ-सुथरे मुहल्लों और सभ्य कहे जाने वाले लोगों में महिलाओं के प्रति इतनी संकीर्णता क्यों है?
जरूरत है सोच में बदलाव की। अगर हम वाकई मानव स्वतंत्रता के पक्षधर हैं, आधुनिकता के उपासक हैं और मानव अधिकारों का सम्मान करते हैं, तो हमें अपने विचार बदलने होंगे। महिलाएं अब जागरूक हो रही हैं। वे थोपे हुए विचारों व परम्पराओं को नहीं ढोना चाहतीं। वे अपने विवेक से काम लेना चाहती हैं। वे अपनी मनुस्मृति खुद रचना चाहती हैं। उन्हें अपना समाज चाहिए तो अपना एकांत भी चाहिए। निवेदन है कि महिलाओं की चौहद्दी तय करने के बजाय उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, उनकी गरिमा का खयाल रखा जाए ताकि वे अपनी आजादी का सही स्वाद ले सकें। स्त्रियों के सशक्तीकरण के लिए जो योजनाएं बनाई जाएं, उनका प्रभाव व्यवहार के धरातल पर भी दिखाई दे। भयमुक्त समाज पुरुषों को ही नहीं, स्त्रियों को भी चाहिए। बल्कि महिलाओं को ज्यादा चाहिए, क्योंकि उनके आसपास के पुरुष ही उनकी जिंदगी में सबसे ज्यादा हस्तक्षेप करते हैं।