कहते हैं बेटियां ठंडी छांव होती हैं और घर की रौनक भी. वे जननी हैं तो पालनहार भी.
लेकिन लगता है हमारे समाज में बहुतों को
यह रौनक रास नहीं आ रही है, शायद यही वजह है कि बेटियों के प्रति हद दर्जे
की कई झकझोर देने वाली खबरें सामने आ रही हैं. कहीं बच्चियों को लावारिस
छोड़ा जा रहा है, तो कहीं इस दुनिया की आबोहवा से वाकिफ होने से पहले ही
उनका गला घोंटा जा रहा है.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बेटी बचाओ अभियान चलाने वाला हमारा समाज यह सब देख-सुनकर आंखें बंद कर लेता है. समाज में अन्याय के प्रति आवाज उठाने के बजाय आंखें बंद कर लेना बेहतर समझा जाता है. यह हालात ऐसे समय है जब बेटियां लगातार आगे बढ़ रही हैं और अपने परिवार का नाम देश-दुनिया में रौशन कर रही हैं. वे सरहद पर न केवल मुल्क की निगहबानी कर रही हैं बल्कि अपने बुजुर्ग मां-पिता का बोझ उठाकर उनका सहारा बन रही हैं.
जनगणना-2011 के आंकड़ों में एक कड़वी हकीकत यह सामने आई कि 0-6 साल आयु वर्ग में बच्चियों की तादाद कम हुई है. 2001 में लिंगानुपात यानि 1000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद 926 थी जो 2011 में घटकर महज 914 रह गई. आजादी के बाद से यह अब तक का सबसे खराब स्तर है. जनगणना आयुक्त सी चंद्रमौलि ने भी इसे बेहद चिंताजनक स्थिति करार दिया है.
इसका कारण यह है कि हम मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स में बेटियों को बचाने का डंका पीटते हैं, सेमिनारों का आयोजन करते हैं, महिलाओं के हित के लिए कानून बनाते हैं, पर अपनी सोच कभी नहीं बदलते. इसी के चलते सारी योजनाएं कागजी पैमाने पर तो खरी उतरती हैं पर उनका असलियत से कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन, प्रसव से पहले भ्रूण के सेक्स की जांच पर रोक लगाने के लिए पीएनडीटी एक्ट है लेकिन इसे अब तक सख्ती से लागू नहीं किया गया है.
नेशनल कमिश्नर फॉर विमेन (एनसीडब्ल्यू) ने पिछले साल सरकार से पीएनडीटी एक्ट को और सख्त बनाने की मांग की थी लेकिन अब तक इस ओर कुछ नहीं किया गया है. वैसे तो हमारे आस-पास आए दिन बेटियों, महिलाओं के अपनों के ही हाथों मारे जाने की खबरें आती हैं. कभी इज्जत के नाम पर, कभी बेटों की चाह में तो कभी आर्थिक विपन्नता की आड़ में बेटियों का गला रेत दिया जाता है.
दूरदराज इलाकों में हुई ऐसी घटनाओं से लोग वाकिफ भी नहीं हो पाते लेकिन कुछ मामले ऐसे भी आए है जिनकी जानकारी से देश का कोई भी कोना अछूता नहीं रह गया है. पश्चिम बंगाल के बर्दवान में एक शख्स ने अपनी तीन बेटियों और गर्भवती पत्नी को मार डाला, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस शख्स को डर था कि कहीं चौथी बेटी पैदा न हो जाए. वहीं दिल्ली स्थित एम्स में लावारिस फलक को जख्मी हालात में भर्ती कराया गया, जहां वह जिंदगी से हार गई.
बेंगलुरू में तीन महीने की आफरीन को कथित तौर पर उसके पिता ने सिगरेट से जलाकर बेरहमी से पीटा जिसके बाद उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया. ग्वालियर में एक व्यक्ति ने पिछले साल अक्टूबर में अपनी नवजात बेटी को अस्पताल में तंबाकू खिलाकर मार डाला. सुल्तानपुर में एक शख्स ने अपनी पत्नी को बच्चियां पैदा करने के ‘जुर्म’ में जला दिया साथ ही अपनी तीन बेटियों को भी आग के हवाले कर दिया. यह वे घटनाएं हैं जो मीडिया की सक्रियता के चलते सामने आई हैं, अन्यथा कई बार ऐसा होता है कि बेटियों को जन्मते ही मार दिया जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता.
विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रूढ़िवादी राज्यों में बच्चियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है. दिल्ली और उसके आसपास की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है. दिल्ली में यह आंकड़ा 1000 बच्चों पर 882, हरियाणा में 849, जम्मू-कश्मीर में 870, पंजाब में 836, राजस्थान में 875 और उत्तर प्रदेश में 874 है. लगता है इन इलाकों में लोग बेटी नहीं सिर्फ बहू चाहते हैं, भले ही उसे खरीद कर लाना पड़े.
महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में यह संख्या 896 होना चिंता का कारण है, क्योंकि वहां रूढ़ियां इतनी अधिक नहीं हैं. यह आंकड़े सभ्य समाज को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त हैं. हालांकि कई सामाजिक संगठनों ने इसके लिए काम शुरू किया है, धार्मिंक संगठनों ने विशेष अभियान चलाया है, लेकिन इसका असर तो फिलहाल नजर नहीं आ रहा है.
कहते हैं कि अगर किसी समाज के विषय में जानना हो कि वह अच्छा है या बुरा तो वहां पर महिलाओं की स्थिति का अध्ययन कर लीजिए. हाल ही में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक-सामाजिक मामलों के विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत लड़कियों के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित देश बन गया है. इस रिपोर्ट को 150 देशों के 40 साल के रिकॉर्ड को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है.
भारत में 1 से 5 साल तक की करीब 75 फीसद बच्चियों की मौत हो जाती है. यह विश्व के किसी भी देश में होने वाली शिशु मृत्यु दर में लैंगिक असमानता की सबसे बदतर स्थिति है. चीन में 76 लड़कों की तुलना में 100 और भारत में 56 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों की मौत होती है. अन्य विकासशील देशों में यह आंकड़ा 122 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों का है. यहां तक कि पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र और इराक में भी लड़कियों की स्थिति में सुधार देखा गया है.
भारत में बच्चियों की स्थिति का यह आंकड़ा वाकई भयावह है. विरासत और संस्कृति का दंभ भरने वाले शहरों में सड़कों पर लावारिस हालात में मिल रहीं बच्चियां सभ्य होने का दावा कर रहे समाज को उसका असली चेहरा दिखा रही हैं. तमाम भारतीय परिवारों में घर के भीतर नवजात बच्चियों पर अमानवीय अत्याचार किए जाते हैं, इतना करने के बाद भी अगर उस बच्ची की सांसे नहीं टूटतीं तो उसे जला दिया जाता है, नाले में फेंक दिया जाता है या दफना दिया जाता है और कारण बताया जाता है आर्थिक परेशानी.
बच्ची के हत्यारे अभिभावक यह दलील देते हैं कि उनके पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे बेटी का पालन-पोषण कर सकें. लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस तरह से सीमित आमदनी में बेटों का लालन-पालन किया जा सकता है, क्या उसी सोच के साथ बेटी को जीने का हक नहीं दिया जा सकता?
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बेटी बचाओ अभियान चलाने वाला हमारा समाज यह सब देख-सुनकर आंखें बंद कर लेता है. समाज में अन्याय के प्रति आवाज उठाने के बजाय आंखें बंद कर लेना बेहतर समझा जाता है. यह हालात ऐसे समय है जब बेटियां लगातार आगे बढ़ रही हैं और अपने परिवार का नाम देश-दुनिया में रौशन कर रही हैं. वे सरहद पर न केवल मुल्क की निगहबानी कर रही हैं बल्कि अपने बुजुर्ग मां-पिता का बोझ उठाकर उनका सहारा बन रही हैं.
जनगणना-2011 के आंकड़ों में एक कड़वी हकीकत यह सामने आई कि 0-6 साल आयु वर्ग में बच्चियों की तादाद कम हुई है. 2001 में लिंगानुपात यानि 1000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद 926 थी जो 2011 में घटकर महज 914 रह गई. आजादी के बाद से यह अब तक का सबसे खराब स्तर है. जनगणना आयुक्त सी चंद्रमौलि ने भी इसे बेहद चिंताजनक स्थिति करार दिया है.
इसका कारण यह है कि हम मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स में बेटियों को बचाने का डंका पीटते हैं, सेमिनारों का आयोजन करते हैं, महिलाओं के हित के लिए कानून बनाते हैं, पर अपनी सोच कभी नहीं बदलते. इसी के चलते सारी योजनाएं कागजी पैमाने पर तो खरी उतरती हैं पर उनका असलियत से कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन, प्रसव से पहले भ्रूण के सेक्स की जांच पर रोक लगाने के लिए पीएनडीटी एक्ट है लेकिन इसे अब तक सख्ती से लागू नहीं किया गया है.
नेशनल कमिश्नर फॉर विमेन (एनसीडब्ल्यू) ने पिछले साल सरकार से पीएनडीटी एक्ट को और सख्त बनाने की मांग की थी लेकिन अब तक इस ओर कुछ नहीं किया गया है. वैसे तो हमारे आस-पास आए दिन बेटियों, महिलाओं के अपनों के ही हाथों मारे जाने की खबरें आती हैं. कभी इज्जत के नाम पर, कभी बेटों की चाह में तो कभी आर्थिक विपन्नता की आड़ में बेटियों का गला रेत दिया जाता है.
दूरदराज इलाकों में हुई ऐसी घटनाओं से लोग वाकिफ भी नहीं हो पाते लेकिन कुछ मामले ऐसे भी आए है जिनकी जानकारी से देश का कोई भी कोना अछूता नहीं रह गया है. पश्चिम बंगाल के बर्दवान में एक शख्स ने अपनी तीन बेटियों और गर्भवती पत्नी को मार डाला, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस शख्स को डर था कि कहीं चौथी बेटी पैदा न हो जाए. वहीं दिल्ली स्थित एम्स में लावारिस फलक को जख्मी हालात में भर्ती कराया गया, जहां वह जिंदगी से हार गई.
बेंगलुरू में तीन महीने की आफरीन को कथित तौर पर उसके पिता ने सिगरेट से जलाकर बेरहमी से पीटा जिसके बाद उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया. ग्वालियर में एक व्यक्ति ने पिछले साल अक्टूबर में अपनी नवजात बेटी को अस्पताल में तंबाकू खिलाकर मार डाला. सुल्तानपुर में एक शख्स ने अपनी पत्नी को बच्चियां पैदा करने के ‘जुर्म’ में जला दिया साथ ही अपनी तीन बेटियों को भी आग के हवाले कर दिया. यह वे घटनाएं हैं जो मीडिया की सक्रियता के चलते सामने आई हैं, अन्यथा कई बार ऐसा होता है कि बेटियों को जन्मते ही मार दिया जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता.
विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रूढ़िवादी राज्यों में बच्चियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है. दिल्ली और उसके आसपास की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है. दिल्ली में यह आंकड़ा 1000 बच्चों पर 882, हरियाणा में 849, जम्मू-कश्मीर में 870, पंजाब में 836, राजस्थान में 875 और उत्तर प्रदेश में 874 है. लगता है इन इलाकों में लोग बेटी नहीं सिर्फ बहू चाहते हैं, भले ही उसे खरीद कर लाना पड़े.
महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में यह संख्या 896 होना चिंता का कारण है, क्योंकि वहां रूढ़ियां इतनी अधिक नहीं हैं. यह आंकड़े सभ्य समाज को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त हैं. हालांकि कई सामाजिक संगठनों ने इसके लिए काम शुरू किया है, धार्मिंक संगठनों ने विशेष अभियान चलाया है, लेकिन इसका असर तो फिलहाल नजर नहीं आ रहा है.
कहते हैं कि अगर किसी समाज के विषय में जानना हो कि वह अच्छा है या बुरा तो वहां पर महिलाओं की स्थिति का अध्ययन कर लीजिए. हाल ही में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक-सामाजिक मामलों के विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत लड़कियों के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित देश बन गया है. इस रिपोर्ट को 150 देशों के 40 साल के रिकॉर्ड को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है.
भारत में 1 से 5 साल तक की करीब 75 फीसद बच्चियों की मौत हो जाती है. यह विश्व के किसी भी देश में होने वाली शिशु मृत्यु दर में लैंगिक असमानता की सबसे बदतर स्थिति है. चीन में 76 लड़कों की तुलना में 100 और भारत में 56 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों की मौत होती है. अन्य विकासशील देशों में यह आंकड़ा 122 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों का है. यहां तक कि पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र और इराक में भी लड़कियों की स्थिति में सुधार देखा गया है.
भारत में बच्चियों की स्थिति का यह आंकड़ा वाकई भयावह है. विरासत और संस्कृति का दंभ भरने वाले शहरों में सड़कों पर लावारिस हालात में मिल रहीं बच्चियां सभ्य होने का दावा कर रहे समाज को उसका असली चेहरा दिखा रही हैं. तमाम भारतीय परिवारों में घर के भीतर नवजात बच्चियों पर अमानवीय अत्याचार किए जाते हैं, इतना करने के बाद भी अगर उस बच्ची की सांसे नहीं टूटतीं तो उसे जला दिया जाता है, नाले में फेंक दिया जाता है या दफना दिया जाता है और कारण बताया जाता है आर्थिक परेशानी.
बच्ची के हत्यारे अभिभावक यह दलील देते हैं कि उनके पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे बेटी का पालन-पोषण कर सकें. लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस तरह से सीमित आमदनी में बेटों का लालन-पालन किया जा सकता है, क्या उसी सोच के साथ बेटी को जीने का हक नहीं दिया जा सकता?
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