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अगर इस तरह के संबंध में स्त्री के पति की रजामंदी हो या मिलीभगत हो तो व्यभिचारी पुरुष के विरुद्ध भी केस नहीं बनेगा. साफ है, इस विचित्र कानून में स्त्री पुरुष की सम्पत्ति जैसी मान ली गई है. यानी पतिअनुमित दे तो पत्नी किसी अन्य के साथ समागम कर सकती है और यह कानून विरुद्ध नहीं होगा.
हाल में एक मुकदमे पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पुरुष वर्चस्व का समर्थन करनेवाले इस कानून की सख्त आलोचना की है. दिलचस्प है कि पुरुष और स्त्री की हैसियत में फर्क करनेवाली यह व्यवस्था जिस भारतीय दंड संहिता में शामिल है, वह 6 अक्टूबर 1860 को यानी आज से डेढ़ सौ साल पहले पास हुई थी. तब से अब तक इसमें सैकड़ों संशोधन हो चुके हैं पर इसकी धारा 497 को नहीं बदला गया, जिसमें स्त्री की हैसियत दोयम दर्जे की है.
राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के मामलों से जुड़े अनेक कानूनों में संशोधन चाहता है पर भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के बारे में उसकी भी राय यह कि इसमें ऐसा कोई संशोधन न किया जाए जिससे विवाहेतर संबंधों के मामले में महिला को दोषी मान उसके लिए सजा तय की जाए. आयोग के अनुसार, धारा 497 के पीछे विधि निर्माताओं के दिमाग में शायद यह विचार रहा होगा कि भारत में स्त्री की स्थिति अत्यंत दयनीय रही है और व्यभिचार के मामले में वह सिर्फ शिकार होती है, उसकी अपनी सहमति नहीं होती. कहने की जरूरत नहीं कि यह मान्यता विवाहित स्त्री को नाचीज मानती है और उसकी नैतिक देखभाल का जिम्मा पति को सौंप देती है.
अगर पत्नी का विवाहेतर संबंध है, तो कानून इस संबंध में शामिल पुरुष को तो सजा देगा, पर स्त्री को दंडित करने या न करने का काम उसके स्वामी का है. लगता है राष्ट्रीय महिला आयोग भी डेढ़ सौ साल पुरानी इस मान्यता के पक्ष में है और स्त्री को पुरुष के बराबर जिम्मेदार नहीं मानता. उसकी नजर में व्यभिचार में दोष पुरुष का है, न कि स्त्री का. आयोग का कहना है, स्त्री के मामले में इसे अपराध के बजाय विासघात माना जाना चाहिए, जबकि व्यभिचारी पुरुष की आपराधिक स्थिति कायम रहनी चाहिए.
स्पष्ट है कि स्त्री की अपनी सहमति का कोई मूल्य नहीं है. वह अपनी इच्छा से किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बना सकती. इसके लिए उसे पति की अनुमति चाहिए और पति चाहे तो स्त्री को उसकी दैहिक कैद से मुक्त कर सकता है. इस तरह किसी विवाहिता का मन भले अपना हो, पर शरीर अपना नहीं है. इसमें पुरुष का साझा है. साझा भी ऐसा कि सारे फैसले पुरुष ही करेगा. स्त्री को अनुगामी बनना होगा. लेकिन विवाहित पुरुष यदि वह किसी अन्य स्त्री से शारीरिक संबंध बनाना चाहता है, तो इसके लिए उसे पत्नी की सहिमत लेने की बाध्यता नहीं है. यहां हम फिर पाते हैं कि जो पुरुष विवाहेतर संबंध बनाए हैं, उसके शरीर में उसकी पत्नी की साझेदारी नहीं है.
साझेदारी है भी, तो निष्क्रिय है. यानी पत्नी के शरीर पर तो पति का अधिकार है, पर पति के शरीर पर पत्नी का कोई अधिकार नहीं. इसीलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में यह प्रावधान नहीं किया गया है कि यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी की सहमति के बिना किसी अन्य स्त्री से समागम करता है, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी. यह शिकायत ले कर पीड़ित पत्नी भी अदालत नहीं जा सकती.
चाहे जिस कोण से देखिए, स्त्री पुरुष की संपत्ति है. जिस तरह किसी की सम्पत्ति बिना इजाजत इस्तेमाल करना गलत है और ऐसा करनेवाले के विरुद्ध कार्रवाई हो सकती है, उसी तरह पत्नी पति की संपत्ति है, जिसके साथ उसकी इजाजत के बिना या उसे राजी किए बिना शारीरिक संबंध नहीं बनाया जा सकता.
अगर कोई पति किसी भी कारण पत्नी को किसी अन्य पुरुष से यौन संबंध बनाने की छूट दे देता है तो वह अन्य पुरुष व्यभिचार का दोषी नहीं होगा. लेकिन पत्नी स्वेच्छा से किसी अन्य से संबंध बनाती है, तो वह पुरुष अपराधी करार दिया जाएगा. अत: पुरुषों का यह आरोप सारहीन नहीं कि यह कानून पुरुषों के प्रति पूर्वाग्रह से भरा है. इसलिए या तो इसे समाप्त होना चाहिए या स्त्री को भी दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए. पति की अनुमित वाला हिस्सा तो खालिस औरत-विरोधी है. स्त्री अपने कृत्य के लिए स्वयं जिम्मेदार होगी, तभी उसका व्यक्त्वि भी बनेगा.
महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर यह विडंबना परंपराग्रस्त रूढ़िग्रस्त मानसिकता का नतीजा है. स्त्री को बराबरी का अधिकार देने की बात आज के प्रगतिशील परिवेश में भी शामिल नहीं हो पाई है. हम लाख आधुनिकता की बात कर लें परंतु पुरुष-प्रधान सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के चलते स्त्री पर पुरुष का वर्चस्व बरकरार है. इस मामले में संसार के तकरीबन सभी धर्मग्रन्थों में आश्चर्यजनक समानता है. यही भावना दुनिया के अनेक देशों की दंड संहिता में भी पाई जाती है. हैरत है कि फ्रांस में भी, जिसे यौन क्रांति का अलम्बरदार माना जाता है, ऐसा भेदभाव कायम है.
हाल में एक मुकदमे पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पुरुष वर्चस्व का समर्थन करनेवाले इस कानून की सख्त आलोचना की है. दिलचस्प है कि पुरुष और स्त्री की हैसियत में फर्क करनेवाली यह व्यवस्था जिस भारतीय दंड संहिता में शामिल है, वह 6 अक्टूबर 1860 को यानी आज से डेढ़ सौ साल पहले पास हुई थी. तब से अब तक इसमें सैकड़ों संशोधन हो चुके हैं पर इसकी धारा 497 को नहीं बदला गया, जिसमें स्त्री की हैसियत दोयम दर्जे की है.
राष्ट्रीय महिला आयोग महिलाओं के मामलों से जुड़े अनेक कानूनों में संशोधन चाहता है पर भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के बारे में उसकी भी राय यह कि इसमें ऐसा कोई संशोधन न किया जाए जिससे विवाहेतर संबंधों के मामले में महिला को दोषी मान उसके लिए सजा तय की जाए. आयोग के अनुसार, धारा 497 के पीछे विधि निर्माताओं के दिमाग में शायद यह विचार रहा होगा कि भारत में स्त्री की स्थिति अत्यंत दयनीय रही है और व्यभिचार के मामले में वह सिर्फ शिकार होती है, उसकी अपनी सहमति नहीं होती. कहने की जरूरत नहीं कि यह मान्यता विवाहित स्त्री को नाचीज मानती है और उसकी नैतिक देखभाल का जिम्मा पति को सौंप देती है.
अगर पत्नी का विवाहेतर संबंध है, तो कानून इस संबंध में शामिल पुरुष को तो सजा देगा, पर स्त्री को दंडित करने या न करने का काम उसके स्वामी का है. लगता है राष्ट्रीय महिला आयोग भी डेढ़ सौ साल पुरानी इस मान्यता के पक्ष में है और स्त्री को पुरुष के बराबर जिम्मेदार नहीं मानता. उसकी नजर में व्यभिचार में दोष पुरुष का है, न कि स्त्री का. आयोग का कहना है, स्त्री के मामले में इसे अपराध के बजाय विासघात माना जाना चाहिए, जबकि व्यभिचारी पुरुष की आपराधिक स्थिति कायम रहनी चाहिए.
स्पष्ट है कि स्त्री की अपनी सहमति का कोई मूल्य नहीं है. वह अपनी इच्छा से किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बना सकती. इसके लिए उसे पति की अनुमति चाहिए और पति चाहे तो स्त्री को उसकी दैहिक कैद से मुक्त कर सकता है. इस तरह किसी विवाहिता का मन भले अपना हो, पर शरीर अपना नहीं है. इसमें पुरुष का साझा है. साझा भी ऐसा कि सारे फैसले पुरुष ही करेगा. स्त्री को अनुगामी बनना होगा. लेकिन विवाहित पुरुष यदि वह किसी अन्य स्त्री से शारीरिक संबंध बनाना चाहता है, तो इसके लिए उसे पत्नी की सहिमत लेने की बाध्यता नहीं है. यहां हम फिर पाते हैं कि जो पुरुष विवाहेतर संबंध बनाए हैं, उसके शरीर में उसकी पत्नी की साझेदारी नहीं है.
साझेदारी है भी, तो निष्क्रिय है. यानी पत्नी के शरीर पर तो पति का अधिकार है, पर पति के शरीर पर पत्नी का कोई अधिकार नहीं. इसीलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में यह प्रावधान नहीं किया गया है कि यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी की सहमति के बिना किसी अन्य स्त्री से समागम करता है, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी. यह शिकायत ले कर पीड़ित पत्नी भी अदालत नहीं जा सकती.
चाहे जिस कोण से देखिए, स्त्री पुरुष की संपत्ति है. जिस तरह किसी की सम्पत्ति बिना इजाजत इस्तेमाल करना गलत है और ऐसा करनेवाले के विरुद्ध कार्रवाई हो सकती है, उसी तरह पत्नी पति की संपत्ति है, जिसके साथ उसकी इजाजत के बिना या उसे राजी किए बिना शारीरिक संबंध नहीं बनाया जा सकता.
अगर कोई पति किसी भी कारण पत्नी को किसी अन्य पुरुष से यौन संबंध बनाने की छूट दे देता है तो वह अन्य पुरुष व्यभिचार का दोषी नहीं होगा. लेकिन पत्नी स्वेच्छा से किसी अन्य से संबंध बनाती है, तो वह पुरुष अपराधी करार दिया जाएगा. अत: पुरुषों का यह आरोप सारहीन नहीं कि यह कानून पुरुषों के प्रति पूर्वाग्रह से भरा है. इसलिए या तो इसे समाप्त होना चाहिए या स्त्री को भी दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए. पति की अनुमित वाला हिस्सा तो खालिस औरत-विरोधी है. स्त्री अपने कृत्य के लिए स्वयं जिम्मेदार होगी, तभी उसका व्यक्त्वि भी बनेगा.
महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर यह विडंबना परंपराग्रस्त रूढ़िग्रस्त मानसिकता का नतीजा है. स्त्री को बराबरी का अधिकार देने की बात आज के प्रगतिशील परिवेश में भी शामिल नहीं हो पाई है. हम लाख आधुनिकता की बात कर लें परंतु पुरुष-प्रधान सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के चलते स्त्री पर पुरुष का वर्चस्व बरकरार है. इस मामले में संसार के तकरीबन सभी धर्मग्रन्थों में आश्चर्यजनक समानता है. यही भावना दुनिया के अनेक देशों की दंड संहिता में भी पाई जाती है. हैरत है कि फ्रांस में भी, जिसे यौन क्रांति का अलम्बरदार माना जाता है, ऐसा भेदभाव कायम है.
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