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Thursday, August 22, 2013

उदारता बनाम हक

कुछ समय पहले की बात है। मैं दफ्तर से लौटने के लिए बस में चढ़ी थी। काफी भीड़ थी, फिर भी मैं बैठने की जगह तलाश रही थी।
इस बीच मेरी नजर महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पड़ी जिन पर कई लड़के बैठे हुए थे। मैंने पास पहुंच कर इशारे से उनमें से एक को उठने के लिए कहा। लड़के ने पहले तो ना-नुकुर की, लेकिन आखिर उठ गया और मैं बैठ गई। दफ्तर की मानसिक और शारीरिक थकान इतनी ज्यादा होती है कि लौटते समय सीट न मिले तो बड़ी तकलीफ होती है। मैं यह सोच रही थी कि अधेड़ उम्र की एक महिला बस में सवार हुर्इं। वे मेरी सीट के पास आकर खड़ी हो गर्इं, लेकिन मेरे बगल में बैठे लड़के को उठने के लिए नहीं कहा। दूसरी ओर वह लड़का भी सीट देने के लिए तैयार नहीं था। मैंने उस महिला को कई बार आंखों और इशारों से जोर देकर अपने बगल की सीट खाली करवा कर बैठने के लिए कहा। लेकिन वे शांतिपूर्वक खड़ी रहीं और मुझे भी शांत रहने के लिए कहा। थोड़ी देर बाद गंतव्य आने पर मेरे बगल में बैठा वह लड़का उतर गया और वे वहां बैठ गर्इं।
वे शायद मेरी नाराजगी समझ रही थीं। उन्होंने कहा- ‘क्या हो गया?’ मैंने लगभग गुस्से में कहा कि एक तो वैसे ही यह व्यवस्था महिला को उसका हक नहीं देना चाहती। दूसरी ओर, कुछ लोग खुद भी दया और महानता की मूरत बने रहते हैं। शांति से कुछ नहीं मिलता मैडम! अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है। उन भाई साहब के भीतर अगर अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता तो वे आपको खुद ही सीट दे देते। लेकिन आपने भी चुप्पी साध ली!’ वे मेरी बातें ध्यान से सुनती रहीं, फिर बोलीं- ‘बेटा, जिंदगी में व्यस्तता बहुत ज्यादा हो गई है। बीस-बाईस साल के होते ही बच्चे अपने कॅरिअर के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। ऐसे में इच्छा नहीं होती उन बच्चों को तकलीफ देने की जो पहले ही काफी कुछ झेल रहे हैं। बाहर दफ्तर की थकान, लोगों की बातें, फिर रात के ठिकाने का अकेलापन। न कोई खयाल रखने वाला है, न फिक्र करने वाला। जब मैं अपने बच्चों का दर्द समझ सकती हूं, तो इनका दर्द मेरे बच्चों से अलग तो नहीं है!’
उनकी बातें बेहद जरूरी थीं।

मैंने उनकी बात का समर्थन किया, लेकिन यह भी कहा कि ये बातें तब लागू होती हैं, जब पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को एक व्यक्ति के रूप में देखे। अमूमन ऐसा नहीं होता। एक महिला को देखते ही ज्यादातर लड़के या वयस्क और यहां तक कि अधेड़ पुरुष भी उसे जहां-तहां छूने या देखने की कोशिश में लग जाते हैं। वे किसी महिला पर महज उसके महिला होने के कारण हावी होना चाहते हैं। अगर पुरुषों की भीड़ में अकेली स्त्री खड़ी हो तो उसे अपने आपको बचाने और संभालने के लिए अलग से कोशिश करनी पड़ती है। मेरा मानना है कि कोई भी ऐसी महिला नहीं होगी जिसने इस तरह की परिस्थिति को न झेला हो। अब वे मुस्करा रही थीं। उन्होंने मेरी सहमति में सिर हिलाया। बस अपनी रफ्तार से चल रही थी।
दरअसल, हमारे लिए दुख का मतलब सिर्फ अपना दर्द और अपनों की तकलीफ भर होता है। हम अपने दर्द की दास्तान बताते हुए अक्सर भूल जाते हैं कि दूसरों को भी परेशानी हो सकती है। मैंने अधिकारपूर्वक उस लड़के को हटा दिया, क्योंकि मैं खुद कई कड़वे अनुभवों से दो-चार हो चुकी हूं और अब मजबूरी में मुझे अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता देनी पड़ती है। महिला होने के नाते और एक तरह की पुरुष मानसिकता से बचने के लिए भी मेरे लिए अपने बारे में सोचना जरूरी है। सार्वजनिक जगहों पर ऐसा आचरण अक्सर दिखता है। यह प्रवृत्ति घर-परिवार में भी देखी जाती है। घर पहुंचने पर पत्नी खाना बना कर रखे, क्योंकि पति को भूख लगी रहती है। अगर पत्नी ने ऐसा नहीं किया तो पति महोदय नाराज होंगे। पति को अपनी तकलीफ का अहसास होता है, लेकिन पत्नी के दर्द का नहीं।
ऐसा इसलिए है कि हम अपनी सहूलियत और अपने हिसाब से एक पक्ष को ही देखते या देखना चाहते हैं। पुरुष जब सड़क पर चल रही महिलाओं को धक्का मारते, छूते या फब्तियां कसते निकल जाते हैं तो उन्हें महज अपने मजे से मतलब होता है। वे एक पल के लिए भी नहीं सोचते कि ऐसा करते वक्त उस महिला पर क्या गुजर रही होगी। इस मानसिकता का चरम हम दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की वीभत्स घटना के रूप में देख चुके हैं। ऐसे सोच या व्यवहार के रहते कौन यह दावा कर सकने की स्थिति में है कि हम एक सभ्य समाज के हिस्से हैं?

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