कदमों तले एक सी धरती और सिर के ऊपर एक ही आसमान है। दो आँखें, दो कान, दो हाथ और दो पैरों के साथ सबने इस धरती पर जन्म लिया। एक सी भावनाएं हैं, एक से एहसास हैं, एक सा दर्द है और एक ही तरह सिसकते भी हैं।
फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक आगे बढ़ा और दूसरा पीछे हो गया? ऐसा क्या हुआ कि एक अव्वल, दूसरा दोयम हो गया? एक शोषक बना तो दूसरा शोषित होने लगा? किसी ने स्त्री को रोका था या वह खुद ही ठिठक गई, यह स्थिति महिलाओं ने खुद स्वीकार की या थोप दी गई और इसी को स्त्रीत्व का मूल स्वभाव मान लिया गया। जो था नहीं वह बन कैसे गया? जो बोझ लाद दिया गया वह स्वीकार क्यों किया गया?
जो भी हो, जो भी रहा हो अब उसे हर पीड़ा से मुक्ति चाहिए। उसे उसके हिस्से की धूप चाहिए, उसे अपने हिस्से का उजाला चाहिए। भीतर जमी काई और सीलन छूटने में जाने कितना वक्त लगेगा। शायद सदियां लगे, तो लगे। बस जो नहीं होना चाहिये वो नहीं होना चाहिए।
उतार देती हैं आप सफ़े पे न मालूम कितने ही परिंदें अहसासों के,खूबसूरत है आपकी कलम की लिखने का मिजाज़..बहुत ही सुन्दर.. :)
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