स्त्रियों के साथ हो रही यौनिक हिंसा, छेड़छाड़
रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गये हैं। इस बार स्त्रियों के लिए सुरक्षित और स्वतंत्र
जिंदगी गुजर-बसर करने का दावा करने वाली आम्ची मुम्बई में भी सामुहिक बलात्कार की घटना
को अंजाम दिया गया। इस हादसे ने बीते साल देश की दामिनी के साथ हुई हैवानियत को फिर
से जेहन में तरोताजा कर दिया है। इस बार चोट ज्यादा घातक है, क्योंकि
अमूमन पत्रकारों से दामन बचाने वाले खूंखारों ने एक पत्रकार को ही अपनी हवस का शिकार
बनाया है।
जानकारी के मुताबिक एक पत्रकार अपने साथी
के साथ एक खबर को कवर करने निकली। उस कर्तव्यनिष्ठ और आत्मविश्वास से भरी महिला पत्रकार
से पहले तो यौनकुंठित पुरुषों ने झगड़ा किया लेकिन जब उस बहस में उससे जीत नहीं पाए
तो बदले की कार्रवाई में युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया। यह वाकया बिलकुल वैसा
ही था जैसा कि दिल्ली में हुआ था, उन्हें किसी का भय नहीं था। ऐसा शायद इसलिए
था क्योंकि यह उनके लिए सहज कर्म था जिसका कभी विरोध ही नहीं हुआ है। खबरों के मुताबिक
उन्होंने पहले भी दो लड़कियों के साथ बलात्कार किया था उन महिलाओं ने विरोध करना तो
दूर उसके खिलाफ कुछ भी नहीं किया। जाहिर है इससे उनके हौसले और बुलंद हुए होंगे, जिसका
परिणाम सबके सामने है।
इस तरह की करतूतें अक्सर दब जाती हैं, कथित
इज्जत के फेर में, कभी समाज के डर से, कभी
अपराधियों का खौफ होता है, और कभी-कभी न्याय की आस नहीं होती। लेकिन
जब इस तरह की दरिंदगी सामने आती है तो सभी वर्गों द्वारा बढ़-चढ़ कर उसकी निंदा की
जाती है। संसद से सड़क तक जमकर बहस होती है, दोषियों
को सजा दिलाने के लिए प्रदर्शन किये जाते हैं, कठोर
से कठोर कानून बनाकर ऐसी वारदातों पर अंकुश लगाने की सरकार से गुजारिश की जाती है।
सरकार की ओर से भी हर सम्भव कार्रवाई का आश्वासन दिया जाता है लेकिन जैसे-जैसे दिन, हफ्ते, महीने, गुजरते
हैं, स्त्री
के खिलाफ हुए अपराध का गुस्सा भी शांत होने लगता है और लोग अपने जीवन की व्यस्तता में
रम जाते हैं। फिर यह गूंज तभी सुनाई देती है जब ऐसा वाकया दुबारा सामने आता है। कुछ
दिनों बाद फिर सब कुछ जस का तस मानो कुछ हुआ ही न हो। महज दिखावे के लिए हम चिल्लाते
हैं फिर आश्वासन की घुट्टी पाकर राहत की सांस लेते है।
शर्मसार करती इस तरह की घटनाओं से सिर्फ
देश के नहीं बल्कि विदेशी भी चिन्तित हैं, यही
वजह कि ब्रिटेन सरकार द्वारा भारत यात्रा पर आने वाले अपने नागरिकों को दो सलाह दी
गईं थीं कि उन्हें भारत में समूह में रहने पर भी यौन हिंसा के खिलाफ बहुत सतर्क रहना
चाहिए और दिन में भी अकेले नहीं निकलना चाहिए। अपनी संस्कृति और संस्कारों का ढोल पीटने
वाले समाज को आईना दिखाती ये सलाहें सब कुछ कहती हैं, लेकिन
इसका कोई असर होगा या इससे सुधार की गुंजाइश की उम्मीद करना निरर्थक है। इस आरोप का
विरोध नहीं किया जा सकता क्योंकि ‘अतिथि
देवो भव’
को मानने वाले इस देश में स्विस राजनयिक के साथ दुष्कर्म किया
गया, आगरा
में विदेशी युवती के कमरे में उसके होटल के मालिक ने घुसने की घटना भी सबके सामने है।
अत्याचार सिर्फ वहीं नहीं होता, जो
कानून की दफाओं में दर्ज हो। हमारे देश में नारी की स्थिति महज नारों के इर्द-गिर्द
ही घूमती है। सारा सशक्तिकरण, सारी आजादी, सारा
सम्मान इज्जत, बराबरी का हक सिर्फ किताबों में ही धूल
खा रहे हैं, इनका जमीनी हकीकत से कोई लेना देना नहीं
है। स्त्री को देवी का भी दर्जा दे दिया है लेकिन वह सिर्फ कलेडर में ही शोभायमान है।
जमीनी हकीकत में तो वह सिर्फ मांस का लोथड़ा भर है, जो
पुरुषों के नोचने-खसोटने भर के लिए बनी है। जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं है, अपना
कोई वजूद नहीं है। वह तब तक आजाद है जब तक पुरुष चाहे, वह
तब तक खुश रह सकती है जब तक पुरुष उसमें बाधा न डाले। समाजों और समुदायों में इसी ‘मर्दानगी’ को
मजबूत किया जाता है। इसी से स्त्रियों को पुरुषत्व का बोध कराया जाता है, और
इस कुलीन परम्परा को आगे बढ़ाया जाता है। लिहाजा, मर्द
अगर ठान ले तो काबू में न आने वाली या पुरुषों के अनुकूल न रहने वाली स्त्री से बलात्कार
कर अपनी कुंठा को निकालता है।
सदियों से स्त्री हक की लड़ाई मुसलसल जारी
है, लेकिन
इसके क्या मायने निकल पाए हैं अब तक?
वास्तव में इस तरह की वारदातों के लिए
हम आप सभी दोषी होते हैं, इसमें हमारा कानून, न्याय
प्रक्रिया हो रही देरी, समाज द्वारा की जा रही अहवेलना, पारिवारिक
दबाव,
स्त्रियों की दोयम दर्जे की स्थिति, स्त्रियों
के प्रति लोगों की सोच, अपराधियों का बढ़ता खौफ चुप्पी साधने के
लिए मजबूर करता है। लेकिन यही चुप्पी बदमाशों को हौसला देती है। उन आरोपियों ने ऐसी
करतूतें पहले भी की थी लेकिन उनका विरोध नहीं किया गया। इस चुप्पी के पीछे सिर्फ सामाजिक
संवेदनहीनता ही नहीं, बल्कि अपराधियों का खौफ है जिन्होंने कानून
व्यवस्था को पंगु बन रखा है। हमारी सामाजिक बनावट इस तरह से की गयी है जहाँ स्त्रियों
के खिलाफ हो रही हिंसा के लिए स्त्री ही जिम्मेदार होती है। बलात्कार होने की दशा में
तो बिडंवना का कहीं कोई अंत ही नहीं। पीड़िता ही शर्म और कलंक का कारण मानी जाती है, जबकि
अपराधियों में इसका भान तक नहीं होता। समाज ही स्त्री के भीतर अपराधबोध पैदा करता है।
लिहाजा जब तक इस तरह की हिंसा से उपजी शर्म और कलंक का व्याकरण पीड़िता से बदलकर अपराधियों
तक नहीं जाएगा, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। वे यह जानकर यौन
हिंसा करने से बाज नहीं आएंगे कि उनके द्वारा किए गए कुकृत्यों की जलालत उन्हें उम्र
भर नहीं झेलनी पड़ेगी बल्कि उनके द्वारा शिकार की गई स्त्री के शरीर और आत्मा पर उसके
निशान होंगे जो कभी नहीं हटेंगे। क्योंकि कत्ल होने वाले के घर में कुछ दिन तक ही मातम
होता है,
लेकिन बलात्कार का दर्द उम्र भर सालता है। इसलिए जरूरत है कि
यौन हिंसा के खिलाफ सहनशीलता पूरी तरह से खत्म की जाए। हालांकि यह इस समाज के लिए ज्यादा
मुश्किल है क्योंकि बलात्कार का आरोप लगने के बाद और सांसदों के तमाम विरोधों के बाद
भी राज्यसभा के उपसभापति अपने पद पर जमे हुए हैं। लेकिन इन सबके बाद भी कोशिश तो करनी
ही होगी क्योंकि चुप्पी से किसी समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता है।