कहने के लिए भारत 21वीं सदी के विश्व की उभरती हुई वैश्विक महाशक्ति की संज्ञा दी गयी है। तकनीकी क्षेत्र में भी इसका कोई सानी नहीं है। इसके साथ ही दूसरे देश स्वयं को भारत से जोड़ने में अपना हित समझते हैं। दूसरे देशों की तरह भारत भी विकासशील से विकसित राष्ट्र में तब्दील होने की जुगत भिड़ा रहा है। हमारा भारत जो कभी जगत गुरु हुआ करता था अपने मूल्यों संस्कारों और संस्कृति के लिए जाना जाता था। जहां लोग संस्कृति और संस्कार को भारत की आत्मा कहते थे और उसी के दर्शन के लिए यहां आते थे।
अब वे मूल्य संस्कार कहीं नजर नहीं आते। शायद गाहे बगाहे उनका जिक्र किया जाता है। चन्द सालों पहले भारतीय समाज का मध्यम वर्गीय हिस्से के जुड़ने का माध्यम केवल आय नहीं था। सामान्य जन-जीवन में मूल्यों की अपनी मूल्य संहिता थी। भारतीय समाज का एक बड़ा तबका अपना सुख दुःख साझा करता था। सामाजिक रिश्तों में प्रगाढ़ता कुछ ऐसी थी कि लोग पड़ोस से चीनी-नमक तक मांग लाते थे और इसी आत्मीयता के चलते अवसर विशेष पर कुछ खास बनाकर एक दूसरे को भेट भी कर देते थे। हर वक्त एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते थे। उनके लिए रिश्ते बोझ नहीं बल्कि उनके जीवन जीने की यही शैली थी। उनका सामाजिक दायरा बहुत विस्तृत था। लेकिन बदलते समय की बदलती धारा के साथ अब भारत की वह छवि धुमिल होती जा रही है। परिस्थितियां ऐसी बदली की लगता है जैसे यह सब गुजरे जमाने की बातें हैं।
बीते 15 सालों में सामाजिक रिश्ते बहुत तेजी से परिवर्तित हुए हैं। रिश्तों को ताक पर रख दिया गया है। हम सामाजिक मूल्यों को खो रहे हैं। तकनीकि और उपभोक्तावादी होने को हम अपने विकास की कसौटी मान रहे हैं। मध्यम वर्ग को विस्थापित कर उपभोक्ता वर्ग ने उनका स्थान ले लिया है जहां लोगों को देश समाज और राजनीति से सरोकार नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में भौतिकता को इतनी तरजीह दी है कि बाकी सारी बातें बेमानी हो गयी हैं। लोग भौतिकता और आडम्बर को अपनी उन्नति का पैमाना समझने लगे हैं। समाज भी इन्हीं कारणों से उन्हें सम्मानित नजरों से देखता है। अपनी अतृप्त लालसाओं की पूर्ति के लिए वे अधिकाधिक धनोपार्जन की कोशिश में दिन-रात लगे रहते हैं और इस नौकरी के अपने तनाव हैं, अपनी मजबूरियां हैं। उनके आस-पास उपस्थिति परिस्थितियां लोगों को ऐसे मकड़जाल में फंसा लेती हैं। कि लोग न चाहते हुए भी सामाजिक रिश्ते-नातों से कटने लगते हैं।
वर्तमान समय में एकल परिवार भी बिखरने के कगार पर है। उनका स्थान धीरे-धीरे नाभकीय परिवार लेने लगा है। इस भागमभाग जिन्दगी में सबसे ज्यादा मात रिश्ते खा रहे हैं। इस नये दौर में रिश्ते बेहतर से बद्तर की दिशा में अग्रसर हैं। जहां निजता का सम्मान नहीं, बल्कि निजता में दखल की उत्कंठा है। आधुनिकता में भौतिकता का घोल इस कदर शामिल है कि आर्थिक स्थितियों से ही व्यक्ति के कामयाबी का मापदण्ड होता हैं।
आर्थिक परिवेश का यह दायरा नितान्त संकुचित है जिसमें सम्बन्धों की गरिमा मू्ल्य मायने नहीं रखते। आधुनिकता की इस आंधी के दरम्यान रिश्तों ने अपना वजूद खो दिया है। रिश्तों की अहमियत पहले जैसी नहीं रह गयी है। अब मानसिक दायरा इतना संकीर्ण है कि इसमें सम्बन्धों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। समय के साथ रिश्तों में विकृति आ गयी है। लोग अपनी हर छोटी-बड़ी खुशी को आर्थिक प्रगति के पीछे नजर अंदाज कर रहे हैं। अंधानुकरण के इस दौर में रिश्तों की मूल्य संहिता की धज्जियां उड़ चुकी हैं। कहीं कोई बेटा बाप की जायदाद के लिए जान ले रहा है तो कहीं पति कुल बीमा राशि के लिए पत्नी का गला रेत रहा है। बदलते समाज के बदलती विचारधारा में पैसों से ही व्यक्ति का चरित्र आकलन हो रहा है। ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजमी हो जाता है कि लम्बे अन्तराल के बाद जब इन दरकते रिश्तों पर सिलन चलायी जायेगी तो क्या रिश्ते अपनी पूर्णता को प्राप्त कर पायेंगे? क्या आने वाले समय में हम अपनी भावी पीढ़ी को कुछ दे पायेंगे? खोखला समाज देकर हम उन्नतशील भारत की चाह रखते हैं! हम जो बोयेंगे वही काटना भी पड़ेगा । सब कुछ बिखर जाये इससे पहले हमारा जागना जरुरी है। जरुरत है रिश्तो को सहेजने और सम्भालने की वरना वक्त हमें कभी न भरने वाला कुछ जख्म दे जायेगा।
माना कि वर्तमान समय में भारत प्रगति की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तरक्की कर रहा है। लेकिन अब तक इसी भारत के गौरवमयी इतिहास ने जीवन की निरंतरता और संस्कारों की तारतम्यता को बनाये रखने में सार्थक भूमिका निभाई है।हमारा इतिहास केवल घटनाओं का हिसाब किताब ही नहीं रखता, अपितु वह वर्तमान को सुधारने और आने वाले समय को सशक्त बनाने का माध्यम भी है।
अतः इनका अनुकरण करके हम अपने उत्थान की ओर उन्मुख हो सकते हैं। अगर हम अपने रिश्तों के साथ न्याय न कर सके तो भारत के विकसित होने का अर्थ बेमानी होकर रह जायेगा और शायद तब भारत महज आर्थिक महाशक्ति के रुप में एक सतही अवधारणा मात्र बनकर रह जायेगा।