कहते हैं, बरगद
बूढ़ा हो जाए तब भी वह छाँव ही देता है लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ती-भागती पीढ़ी को
यह बात समझ में नहीं आ रही है। वो दिन चले गए, वो लम्हे गुजर गए जब बुजुर्गों के साए
में बचपन फला फूला करता था अब बुजुर्ग वृद्धाश्रम में नजर आते हैं और बचपन कम्प्यूटर
और वीडियो गेम के बीच नजर आता है। आधुनिकता का लबादा ओढ़े हमारा समाज, हमारा परिवार
बुजुर्गों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। परिवार में बड़े-बुजुर्गों से सलाह-मशविरा
करने के बजाय उन्हें चुप रहने की सलाह दी जाती है। उनका बोलना खलल समझ में आता है।
घऱ में वृद्धों की स्थिति पुरानी वस्तुओं सी हो गई है जिससे घर की खूबसूरती में दाग
समझा जाने लगा है।
देश में वृद्धाश्रमों
की गिनती अब तक नहीं की गई है इसका सरकार या गैर सरकारी स्तर पर कोई भरोसेमंद सर्वे
नहीं हुआ है लिहाजा कोई वृद्धाश्रमों का कोई निश्चित आकड़ा नहीं है लेकिन इनकी उपयोगिता
बढ़ रही है इसलिए इनकी संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है। समाज कल्याण मंत्रालय के मुताबिक
देश में 2008-09 में 278 वृद्धाश्रम सक्रिय थे जो 2009-10 में बढ़कर 728 हो गए। इनमें
से करीब आधी संस्थाएं दान पर आश्रित हैं जबकि कुछ संस्थाएं अपने यहाँ बुजुर्गों को
पनाह देने की फीस वसूलती हैं।
वृद्धाश्रमों की
संख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है बड़े-बुजुर्गों के सम्मान का ग्राफ उतनी ही तेजी से
नीचे गिर रहा है। ओल्ड एज होम की डिमांड बड़े शहरों में ही नहीं बल्कि छोटे शहरों और
कस्बों में भी बढ़ी है। दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में दो दर्जन से ज्यादा
ओल्ड एज होम चल रहे हैं। इनकी बढ़ती संख्या इनकी बढ़ती उपयोगिता यह बताने के लिए काफी
हैं कि घर में बुजुर्ग माँ-बाप की क्या हैसियत रह गई है।
जिन्होंने कभी
अपनी उंगली का सहारा देकर चलना सिखाया, कंधे पर बिठाकर दुनिया दिखाई, जब भी कभी कदम
लड़खड़ाए आगे बढ़कर थाम लिया। वक्त बदला, बच्चा जवान हुआ और उसे सहारा देने वाले कंधे
बूढ़े हो गए। अब जब इन कंधों को सहारॆ की जरूरत पड़ी तो अपने बेगाने हो गए। इस भीड़
भाड़ वाली दुनिया में उन्हें बेगाना कर दिया गया। उन्हें ओल्ड एज होम भेज दिया गया।
हकीकत यह भी है
कि बुजुर्ग घर की चारदीवारी के भीतर खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं, बुजुर्गों
को सताया जा रहा है, अपने ही घर में वे उपेक्षा के शिकार हैं, बेटे बहुओं का तिरस्कार
सहने के लिए बेबस हैं लिहाजा अब बुजुर्ग भी घर में रहना नहीं चाहते। एक सर्वे में यह
बात सामने आई है कि बुजुर्ग भी अब घर की चारदीवारी में नहीं रहना चाहता। बुजुर्गों
ने ओल्ड एज होम को अब स्वीकारने लगे हैं, बुजुर्ग मानने लगे हैं कि ओल्ड एज होम घर
से बेहतर जगह है क्योंकि वहाँ हमउम्र के लोग साथ रहते हैं, सुख-दुख बांटते हैं, आपस
में बोलते बतियाते जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव सुनाते वक्त कट जाता है। हालांकि बुजुर्गों
की बहलाव भरी इन बातों के पीछे होने वाली मानसिक प्रताड़ना भी कहीं से कम नहीं होती
होगी। बुढ़ापा या शारीरिक शिथिलता प्रकृति के जीवन चक्र का हिस्सा है यह नियम हर किसी
पर समान रूप से लागू ता है लिहाजा इसे मानसिक रूप से सहर्ष स्वीकार लेने की प्रवृत्ति
भी होनी चाहिए।
देश
में लगातार बढ़ रही वृध्दाश्रमों की संख्या यह बताती है कि बुजुर्ग अब हमारे लिए अनवांटेड
हो गए हैं। वे आज की दुनिया के खांचे में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं। उन्हें हमारी जरूरत
हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है। बुजुर्गों
का समझाना, खुद की स्वतंत्रता में बाधक मालूम होता है। खुद की स्वतंत्रता के लिए बुजुर्ग
को वृध्दाश्रम में छोड़ दिया।
घर-परिवार के बीच
बुजुर्ग माँ बाप की स्थिति जितनी दयनीय होती जा रही है हमारे समाज में उनकी व्यवस्था
और सहुलियत के नाम पर उतने ही वृध्दाश्रम खुल रहे हैं। हमारे देश में बुजुर्गों
(60 साल और इससे ज्यादा उम्र) की तादाद तकरीबन 10 करोड़ है यानी कुल आबादी का 8.2% संख्या बुजुर्गों
की है। बीते कुछ सालों में भुखमरी का शिकार होने वाले लोगों में सर्वाधिक संख्या बुजुर्गों
की है और शहरी इलाकों में बेघर होने वाले लोगों में सबसे ज्यादा बुजुर्गों की है। हैरान
करने वाली बात तो यह है कि करीब 60 फीसदी बुजुर्ग को अपनी जीविका चलाने के लिए काम
करना पड़ रहा है जबकि जीविकापार्जन के लिए काम करने को बाध्य बुजुर्ग महिलाओं की तादाद
19 फीसदी है।
वसुधैव
कुटुम्बकम की अवधारणा खंडित होने लगी है। एकल परिवार बढ़ रहे हैं,
ऐसे
परिवार में बुजुर्ग की उपस्थिति खटकने लगी
है, वजह साफ है, वे
अपनी परंपराओं को छोडना नहीं चाहते और आधुनिक पीढ़ी अपनी आधुनिकता के पहिए की गति के
साथ ही भागना चाहती है। पीढियों के द्वन्द में अक्सर झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं।
हमें कभी अपने परिवार के बड़े बूढ़ों की अंतर्वेदना का आभास नहीं होता हम नहीं जानना
चाहते कि वे किस मनोदशा से गुजर रहे हैं। और उन्हें अनदेखा कर देते हैं।
उस
पीढी ने जीने की राह दिखाई जीने की अपार सम्भावनाएँ दी, जीवन की हरियाली दी और हम उऩ्हें
दे रहे हैं कांक्रीट के जंगल। उन्होंने हमे बनाया संवारा और अपनापन दिया लेकिन वे अपनों
के बीच ही बेगाने कर दिए गए। उन्होंने हर इच्छा को स्वीकारा हर शरारत को हँसी में उड़ा
दी, लेकिन उनकी इच्छा को अनदेखा कर दिया गया क्योंकि वे आपके आसरे हैं। वे सभी को एक
साथ देखना चाहते हैं, लेकिन बड़प्पन की इस दुनिया में हमने अपना अलग-थलग संसार बना
लिया है, जिसमें उऩके लिए कोई जगह नहीं है। वे जोडना चाहते थे,
लेकिन
खुद की श्रध्दा तोडने में रही। घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं
और परंपराओं का जीवित रहना।
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं, संसार हैं। लेकिन
वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात की इशारा कर रही है कि बुजुर्ग
हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं। हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं।
बढ़िया
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजब बोए पेड़ करील के, तो आम कहाँ से होए ।
ReplyDeleteसाधी चोट लुहार की, तो लोहाऊ सीधा होए ।।
shayad ye kahna uchit nahi hai ki iske doshi vahi hai jo bujurg hain. Apne bachcho ko achche sanskar n diye hain. balki swarth ke vashibhut ho gaye hain thodi c b dikkat jhel n sakte hai.
Deleteyah manta hun ki kuch aise b hai jinhone apne buzurgon ka samman n kiya to ab jabki ve buzurg hai unhe b samman n mil raha hai. Lekin sabhi ????????? baharhal mai to chota hun dekhta hun ...........ye chakkar kya hai kareel aur AAm ka
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteBahut Achha likha h Mam,,,
ReplyDeletekaash hamare desh ke no javan bhagvan se badkar jo budhe maa baap he unki kadr kare kiyo ki ye god gift he ye dobara nahi mill sakte ....kiyoki agar maa baap aap ke paas he to swarg aur jannat dono aap ke paas he aur inko dur karne se nark bhi nasib nahi hoga....
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा हे…
ReplyDeleteI Like it...
ye he aaj ka sac jin ne aakele car ko pala bo car ye konhi pal pa rahe
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete