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Wednesday, July 20, 2011

नन्ही सी जान



मेरी पैदाइश का किस्सा बड़ा अजीब है। जब मैं पैदा होने वाली थी तो नौ महीने मेरी माता जी को भी पता नहीं  था कि वे प्रेगनेन्ट है। वो तो अचानक माता जी के पेट में तेज दर्द हुआ इससे पहले की वो कुछ समझ पाती उन्हें जोर की छींक आयी और मैंने अपने निकलने का रास्ता ख़ुद ढ़ूंढ़ लिया। मैं उस छींक के सहारे उनके मुंखारविन्द से इस जमीन आ गयी। मेरे पैदा होने का कहीं कोई खुशी कहीं कोई जश्न नहीं हुआ पर हद तो तब हो गयी जब मेरी मां ने मेरे पैदा होने के बाद रोना शुरु किया। मैं नन्ही सी जान हैरान-परेशान हो गयी वो तो भला हो पिताजी का जिन्होंने मां के रोने का कारण पूछा तो मां ने रोते रोते बताया की मेरी बिटिया मुझे मिल नहीं रही है एक्चुली छींक इतनी ज़बरदस्त थी कि मैं दूर छिटक गयी जब पिताजी ने मुझे ढूंढ़ना शुरु किया तो उन्होंने पाया कि मैं चूहे के बिल के पास पड़ी, मेढ़क जैसी आंखें फ़ाड़े मां को ढूंढ़ रही थी उस समय मैं पिताजी के एक उंगली के बराबर थी उन्होंने मुझे हथेली में उठाया और मां को ले जाकर सौंप दिया। तभी से मेरी मां ने मुझे चूहिया बुलाना शुरु कर दिया।
इस नामकरण के बाद तो मेरी दुनिया ही बदल गयी मुझे याद है कि कई बार जब मालिश होने के बाद माता जी मुझे जम़ीन पर सुला देती थी तो चूहे घण्टों मेरे साथ ख़ेलते रहते, ख़ेलते क्या थे, मेरी पूंछ ढूंढ़ते थे। कुछ न मिलने पर मेरे बालों को ही कुतर ड़ालते थे  और शुक्र है, कि मुझे छोड़ देते थे। कई चूहों ने मुझे अपनी बहन ही समझा और बिल में चलने का आग्रह किया। मेरे न जाने पर वे मेरी गुस्ताखी पर बहुत नाराज हुए और मुझे घसीटकर अपने बिल तक ले भी गये पर हर बार उनके नेक इरादों पर मां पानी फेर देती यानि हर बार मां बीच-बचाव कर लेती थी।
एक दिन मैं बिस्तर पर पड़ी खेल रही थी और खेलते-खेलते मैं जमीन पर लुढ़क गयी। वैसे मैं अक्सर जमीन पर लुढ़क जाया करती थी जिसके कारण लोग मुझे जमीन से ज़ुड़े होने का गौरव प्रदान करते हैं। हां! तो मैं जमीन पर लुढ़क गयी और मेरी दाई झाड़ू लगाते हुए सारे कचरों के साथ मुझ अनमोल रत्न को भी झाड़कर ले गयी। मैं जी-जान छोड़कर चिल्ला रही थी पर मेरी मधुर वाणी उस दाई तक नहीं पहुंच पा रही थी। वो तो मां मुझे ढूंढ़ती हुई चली आयी और उनकी बदौलत मैं एक बोझ की तरह आज भी इस धरती पर शोभायमान हूं।
मां चाहती थी कि मैं भी  अपने अन्य भाई बहनों की तरह स्वस्थ हो जाऊं क्योंकि आए दिन लोग ठंड़ी हवा के लिए छत पर जाते सभी लोग हवा खाते और हवाए मुझे खाने की कोशिश में लग जाती थी अगर बारिश भी साथ में होने लगे तो मैं उस पहाड़ रुपी बुंदों के नीचे दबती जाती थी और अगर बारिश जरा तेज होने लगे तो मेरे लिए तो बाढ़ आ जाती थी मेरी वजह से सबको अपना मन मसोसना पड़ता था इसके लिए उन्होंने कई कोशिशो की कि मैं भी स्वस्थ रहुं मां मेरे लिए बाबा जामदेव की एक दवा लौह बज्रासन ले आयी जिसका स्लोगन था एक चम्मच खाओं हाथी हो जाओ चूंकि हमारी मां बहुत सीधी-सादी है इसलिए हर बात पर आसानी से यकीन कर लेती थी यही कारण था कि वे लौहबज्रासन ले आयी। सर्वप्रथम एक चम्मच पिलाया आधे घण्टे बाद देखा कोई फर्क नहीं आया तो फिर एक चम्मच पिलाया पुनः कोई फर्क न पड़ता देखकर उन्होंने पूरी की पूरी बाटल मेरे मुंह में उड़ेल दी फिर तो जो उल्टियां शुरु हो गयी कि मैं और आधी हो गयी। सारे प्रयत्न हमेशा की तरह विफल रहे इस कारण मेरी सहेलियों ने मुझे सूखी हड्डी, माचिस की तीली, सुखण्डी पहलवान और नन्ही सी जान आदि विभिन्न नामों से पुकारना शुरू कर दिया। चाहे जो भी हो मेरे हौसले हमेशा से बुलन्द रहे है मैंने कभी भी अपने आपको कमजोर या पतला नहीं माना पर मेरे अकेले के मानने से क्या होता है लोग माने फिर तो कोई बात बने। खैर, मेरा मानना था कि -
मंजिले उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है।
सिर्फ पंख फड़फडाने से कुछ नहीं होता, हौसलो से उडान होती है।
 इस कारण जरा भी कही दंगे फसाद होते थे मैं पहले कूद जाया करती थी पर कोई फायदा न होता लोग मुझसे डरते ही न थे क्योंकि मैं किसी को दिखाई ही न पडती थी और अगर कभी दिख भी जाती तो मेरी कद्र कोई न करता था    
तमाम कोशिशों के बावजूद मुझमें कोई ख़ास फ़र्क नहीं आया है और मैं जस की तस बनी हुई हूं। इसी कारण जब कोई मुझसे मेरा जन्म दिन पूछता है तो मैं बता नहीं पाती क्योंकि मैं तो पैदा ही नहीं हुई हूं मैं तो डायरेक्ट टपकी हूं। मैंने तो अवतार लिया है।

Friday, May 6, 2011

“कहने को जश्न-ए-बहारा है”

कहने के लिए भारत 21वीं सदी के विश्व की उभरती हुई वैश्विक महाशक्ति की संज्ञा दी गयी है। तकनीकी क्षेत्र में भी इसका कोई सानी नहीं है। इसके साथ ही दूसरे देश स्वयं को भारत से जोड़ने में अपना हित समझते हैं। दूसरे देशों की तरह भारत भी विकासशील से विकसित राष्ट्र में तब्दील होने की जुगत भिड़ा रहा है। हमारा भारत जो कभी जगत गुरु हुआ करता था अपने मूल्यों संस्कारों और संस्कृति के लिए जाना जाता था। जहां लोग संस्कृति और संस्कार को भारत की आत्मा कहते थे और उसी के दर्शन के लिए यहां आते थे।

अब वे मूल्य संस्कार कहीं नजर नहीं आते। शायद गाहे बगाहे उनका जिक्र किया जाता है। चन्द सालों पहले भारतीय समाज का मध्यम वर्गीय हिस्से के जुड़ने का माध्यम केवल आय नहीं था। सामान्य जन-जीवन में मूल्यों की अपनी मूल्य संहिता थी। भारतीय समाज का एक बड़ा तबका अपना सुख दुःख साझा करता था। सामाजिक रिश्तों में प्रगाढ़ता कुछ ऐसी थी कि लोग पड़ोस से चीनी-नमक तक मांग लाते थे और इसी आत्मीयता के चलते अवसर विशेष पर कुछ खास बनाकर एक दूसरे को भेट भी कर देते थे। हर वक्त एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते थे। उनके लिए रिश्ते बोझ नहीं बल्कि उनके जीवन जीने की यही शैली थी। उनका सामाजिक दायरा बहुत विस्तृत था। लेकिन बदलते समय की बदलती धारा के साथ अब भारत की वह छवि धुमिल होती जा रही है। परिस्थितियां ऐसी बदली की लगता है जैसे यह सब गुजरे जमाने की बातें हैं।

बीते 15 सालों में सामाजिक रिश्ते बहुत तेजी से परिवर्तित हुए हैं। रिश्तों को ताक पर रख दिया गया है। हम सामाजिक मूल्यों को खो रहे हैं। तकनीकि और उपभोक्तावादी होने को हम अपने विकास की कसौटी मान रहे हैं। मध्यम वर्ग को विस्थापित कर उपभोक्ता वर्ग ने उनका स्थान ले लिया है जहां लोगों को देश समाज और राजनीति से सरोकार नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में भौतिकता को इतनी तरजीह दी है कि बाकी सारी बातें बेमानी हो गयी हैं। लोग भौतिकता और आडम्बर को अपनी उन्नति का पैमाना समझने लगे हैं। समाज भी इन्हीं कारणों से उन्हें सम्मानित नजरों से देखता है। अपनी अतृप्त लालसाओं की पूर्ति के लिए वे अधिकाधिक धनोपार्जन की कोशिश में दिन-रात लगे रहते हैं और इस नौकरी के अपने तनाव हैं, अपनी मजबूरियां हैं। उनके आस-पास उपस्थिति परिस्थितियां लोगों को ऐसे मकड़जाल में फंसा लेती हैं। कि लोग न चाहते हुए भी सामाजिक रिश्ते-नातों से कटने लगते हैं।
वर्तमान समय में एकल परिवार भी बिखरने के कगार पर है। उनका स्थान धीरे-धीरे नाभकीय परिवार लेने लगा है। इस भागमभाग जिन्दगी में सबसे ज्यादा मात रिश्ते खा रहे हैं। इस नये दौर में रिश्ते बेहतर से बद्तर की दिशा में अग्रसर हैं। जहां निजता का सम्मान नहीं, बल्कि निजता में दखल की उत्कंठा है। आधुनिकता में भौतिकता का घोल इस कदर शामिल है कि आर्थिक स्थितियों से ही व्यक्ति के कामयाबी का मापदण्ड होता हैं।
आर्थिक परिवेश का यह दायरा नितान्त संकुचित है जिसमें सम्बन्धों की गरिमा मू्ल्य मायने नहीं रखते। आधुनिकता की इस आंधी के दरम्यान रिश्तों ने अपना वजूद खो दिया है। रिश्तों की अहमियत पहले जैसी नहीं रह गयी है। अब मानसिक दायरा इतना संकीर्ण है कि इसमें सम्बन्धों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। समय के साथ रिश्तों में विकृति आ गयी है। लोग अपनी हर छोटी-बड़ी खुशी को आर्थिक प्रगति के पीछे नजर अंदाज कर रहे हैं। अंधानुकरण के इस दौर में रिश्तों की मूल्य संहिता की धज्जियां उड़ चुकी हैं। कहीं कोई बेटा बाप की जायदाद के लिए जान ले रहा है तो कहीं पति कुल बीमा राशि के लिए पत्नी का गला रेत रहा है। बदलते समाज के बदलती विचारधारा में पैसों से ही व्यक्ति का चरित्र आकलन हो रहा है। ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजमी हो जाता है कि लम्बे अन्तराल के बाद जब इन दरकते रिश्तों पर सिलन चलायी जायेगी तो क्या रिश्ते अपनी पूर्णता को प्राप्त कर पायेंगे? क्या आने वाले समय में हम अपनी भावी पीढ़ी को कुछ दे पायेंगे? खोखला समाज देकर हम उन्नतशील भारत की चाह रखते हैं! हम जो बोयेंगे वही काटना भी पड़ेगा । सब कुछ बिखर जाये इससे पहले हमारा जागना जरुरी है। जरुरत है रिश्तो को सहेजने और सम्भालने की वरना वक्त हमें कभी न भरने वाला कुछ जख्म दे जायेगा।
माना कि वर्तमान समय में भारत प्रगति की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तरक्की कर रहा है। लेकिन अब तक इसी भारत के गौरवमयी इतिहास ने जीवन की निरंतरता और संस्कारों की तारतम्यता को बनाये रखने में सार्थक भूमिका निभाई है।हमारा इतिहास केवल घटनाओं का हिसाब किताब ही नहीं रखता, अपितु वह वर्तमान को सुधारने और आने वाले समय को सशक्त बनाने का माध्यम भी है।
अतः इनका अनुकरण करके हम अपने उत्थान की ओर उन्मुख हो सकते हैं। अगर हम अपने रिश्तों के साथ न्याय न कर सके तो भारत के विकसित होने का अर्थ बेमानी होकर रह जायेगा और शायद तब भारत महज आर्थिक महाशक्ति के रुप में एक सतही अवधारणा मात्र बनकर रह जायेगा।