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Wednesday, May 24, 2017

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न तुम्हें
तुम्हारा खुदा बचाएगा
न मुझे
मेरा ईश्वर

तुम्हें हम बचाएंगे
हमें
तुम

आओ तुममें मैं अपना ईश्वर देखूँ
तुम मुझमें अपना खुदा।

    #जय नारायण

प्रेम की परिभाषा

कल एक प्ले (नाटक) देख रहा था जो हिजड़ों की ज़िंदगी पर आधारित था.. एक सीन था जिसमे एक हिजड़ा अपनी आप बीती पर रो रहा होता है.. वो बताता है कि कैसे एक सेठ ने उस से शादी की और दो रात उसके साथ बिता कर रफूचक्कर हो गया.. वो कहता है कि वो सेठ "उसकी इज़्ज़त लूट कर उसे मसल कर कर चलता बना".. बहुत मार्मिक सीन था.. बहुत लोगों की आखों में आंसू थे.. मगर वहीं कुछ अधेड़ उम्र के लोग बैठे थे जो खिलखिला का हंस रहे थे.. हिजड़े का ये कहना कि उसकी इज़्ज़त चली गयी उन भद्र जनों को भीतर से गुदगुदा रहा था

थिएटर में अमूमन इस तरह से दर्शक कम ही देखने को मिलते हैं.. इसलिए मैं अंधेरे में आँखें फाड़ कर उन लोगों को देखने की कोशिश कर रहा था कि ये सिनेमा देखने वाले कौन से लोग हैं जो आज थिएटर आ गए हैं.. सिनेमा में ये बहुसंख्यक होते हैं.. बॉबी डार्लिंग जब अपने टूटे हुवे प्यार के लिए किसी फ़िल्म में रोती है तो बहुसंख्यक ठठ्ठा मार के हंसते हैं.. जिनके संबंध भी होते हैं ऐसे लोगों से वो भी आपको हंसते हुवे मिलेंगे.. ये प्रेम पर हंसने वाले लोग हैं जिनके लिए प्रेम वो है जो इनके हिसाब से इनके सामाजिक तानों बानो और इनकी समझ पर आधारित होना चाहिए

प्यार भी हमे larger than life चाहिए होता है.. संजय लीला भंसाली की फिल्मों जैसा.. जोधा का प्यार, पद्मावती का प्यार, रोमियो जूलिएट, बाजीराव मस्तानी का प्यार.. ये सब हमारे लिए मिसाल होते हैं.. मगर पास ही में गंदी बस्ती में रहने वाले हरिया का प्यार, किसी रिक्शे वाले का प्यार, किसी हिजड़े का प्यार हमारे लिए हंसी का ज़रिया होता है.. अलीगढ़ के प्रोफेसर का रिक्शे वाले से प्यार वहां के नौजावान लड़कों को इतना खल गया कि उस प्रोफेसर का जीना हराम कर दिया इन लोगों ने और अंत मे उसने आत्म हत्या कर ली.. और विरोध करने वाले ये वो नौजवान थे जो अपने धर्म में नौ साल की बच्ची से निकाह किये जाने पर जो तर्क न दें वो कम होता है.. धूर्तों ने अपनी वासना पर अल्लाह और भगवान की मोहर लगवा कर उसे प्रेम का नाम दे दिया है और जो ये धूर्तता न कर पाए वो बेचारे प्यार करें तो इनके आगे उपहास का पात्र बनते हैं

हिजड़ा अगर ये कहे कि उसकी इज़्ज़त लुट गयी है तो आप हंसेंगे.. क्यूंकि आपके सामाजिक परिभाषा में इज़्ज़त का मतलब "योनि" होता है

सोचियेगा कभी कि इज़्ज़त का मतलब आपके लिए क्या होता है? आप अपनी बहन, बेटी और पत्नी की योनि की रक्षा करते हैं.. क्यूंकि वही आपके लिए इज़्ज़त है सदियों से..  आपके धर्मशास्त्र इसी इज़्ज़त की महिमामंडन से भरे पड़े हैं और आपकी वासना के किस्से सच्ची प्रेम कहानियों के नाम से मशहूर हैं.. ये आपका समाज है और आपने इसे बुना है.. आप के प्रेम की परिभाषा में जो फिट न हो वो प्रेमी नही है क्या?

~ताबिश

Monday, May 22, 2017

कविता



एक लड़की है
जिसके दुःख
नाज़ुक दिल की
बांबियों में
रहते हैं।

जैसे तुम नहीं जानते
तकिये के नीचे रखे
ख़तों में लिखी बातें,
कुछ कुछ वैसे ही
तुम नहीं समझोगे
उन दुःखों को
बातों के हवाले से।

लड़की जानती है
बहुत से किस्से जिनसे
बहला देगी तुम्हें
और तुम बहल जाओगे।

वो प्रेम की बात करेगी
और हँस देगी, फ़िर
उसकी हँसी के आगे
तुम्हें याद नहीं रहेगा कुछ।
तुम बुदबुदाकर कहोगे कुछ
शायद ' आई लव यू'
मग़र तुम जानते हो कि
तुम्हारा प्रेम काफ़ी नहीं है
उसे खुश रखने को।

हो सकता है तुम सोचो
कि लड़की लड़ लेगी
अपने सब दुःखों से
और सारी चुनौतियों को
रौंदेगी नहीं बल्कि
हाथ से उठाकर रख देगी
रास्तों के किनारे खड़े
किसी पेड़ की कोटर में
कि ऐसी लड़कियों से
नहीं दुखाया जाता
किसी का भी दिल।

मग़र मुझे लगता है
मुझे जानना चाहिए
उन सब चोटों के बारे में
जिसके निशान छुपाती है
फूल सी वो लड़की।

उससे प्रेम करना भर
वजह नहीं है मेरे
इस अतिक्रमण की।
मैं महसूसना चाहता हूँ
वो सब, सब, सब
जो बीतती है उस पर।

इसीलिए मैं बढ़ता जाता हूँ
उस मासूम की जानिब
जो छुपाकर रखती है सब ज़ख़्म
अपनी जादूई बातों में।
जैसे जैसे गहराती है रात
मैं उतारता हूँ पट्टी
उसकी एक एक चोट से।
छूकर देखता हूँ,
पूछता हूँ निशानों के बारे में।
आख़िर, वो हार मान जाती है।

फ़िर मैं बढ़ता हूँ
उन बांबियों की तरफ़
जिसमें छुपे बैठे हैं
ऐसे दुःख जो शायद
मुझे पागल कर दें।

मैं लेकर बाँहों में
उस चाँद बदन को,
बांधता हूँ प्रेम के
मजबूत संबोधनों में
और मसल देता हूँ
निकालकर कुछ दुःख
उसके दिल की बांबियों से।

वो लड़की कुछ नहीं कहती,
आँसुओं की एक लकीर
गिरती है उसकी आँखों से
और वो जकड़ लेती है मुझे,
जैसे जाने ही नहीं देगी,
न मुझे न चाँद को न इस रात को।

देर रात के उस पहर
ठीक उसी पल
हम होते हैं इतने क़रीब
कि यकीन सा आने लगता है
ज़रूर बनी होंगी
हम दोनों की आत्मायें
एक ही मिट्टी से,
मैं चोर नज़र से देखता हूँ
लड़की की पीठ पर
घुपे हुए हैं कितने ख़ंजर
रहनुमाओं के नाम के।

और ज़रूरी नहीं कि
तुम समझो मेरी कोई भी बात,
कि मैंने जिस तरह किया है प्रेम
वैसे कोई नहीं करता।
और ये भी कि
तुम जानते ही नहीं
उस लड़की को उस तरह
जैसे मैं जानता हूँ।

आनन्द बाजपेई

Saturday, May 20, 2017

ओशो वचन

तुम किसी स्त्री को निर्वस्त्र कर सकते हो, नग्न नहीं। और जब तुम निर्वस्त्र कर लोगे तब स्त्री और भी गहन वस्त्रों में छिप जाती है। उसका सारा सौंदर्य तिरोहित हो जाता है; उसका सारा रहस्य कहीं गहन गुहा में छिप जाता है। तुम उसके शरीर के साथ बलात्कार कर सकते हो, उसकी आत्मा के साथ नहीं। और शरीर के साथ बलात्कार तो ऐसे है जैसे लाश के साथ कोई बलात्कार कर रहा हो। स्त्री वहां मौजूद नहीं है। तुम उसके कुंआरेपन को तोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि कुंआरापन बड़ी गहरी बात है।
लाओत्से वैज्ञानिक की तरह जीवन के पास नहीं गया निरीक्षण करने। उसने प्रयोगशाला की टेबल पर जीवन को फैला कर नहीं रखा है। और न ही जीवन का डिसेक्शन किया है, न जीवन को खंड-खंड किया है। जीवन को तोड़ा नहीं है। क्योंकि तोड़ना तो दुराग्रह है; तोड़ना तो दुर्योधन हो जाना है। द्रौपदी नग्न होती रही है अर्जुन के सामने। अचानक दुर्योधन के सामने बात खतम हो गई; चीर को बढ़ा देने की प्रार्थना उठ आई। वैज्ञानिक पहुंचता है दुर्योधन की तरह प्रकृति की द्रौपदी के पास; और लाओत्से पहुंचता है अर्जुन की तरह--प्रेमातुर; आक्रामक नहीं, आकांक्षी; प्रतीक्षा करने को राजी, धैर्य से, प्रार्थना भरा हुआ। लेकिन द्रौपदी की जब मर्जी हो, जब उसके भीतर भी ऐसा ही भाव आ जाए कि वह खुलना चाहे और प्रकट होना चाहे, और किसी के सामने अपने हृदय के सब द्वार खोल देना चाहे।
तो जो रहस्य लाओत्से ने जाना है वह बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी नहीं जान पाता। क्योंकि जानने का ढंग ही अलग है। लाओत्से का ढंग शुद्ध धर्म का ढंग है। धर्म यानी प्रेम। धर्म यानी अनाक्रमण। धर्म यानी प्रतीक्षा। और धीरे-धीरे राजी करना है। धर्म एक तरह की कोघटग है। जैसे तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, उसे धीरे-धीरे राजी करते हो। हमला नहीं कर देते।

ताओ उपनिषद भाग # 6 ,
प्रवचन # 121                                         ओशो

Thursday, May 18, 2017

अपना आसमान


कदमों तले एक सी धरती और सिर के ऊपर एक ही आसमान है। दो आँखें, दो कान, दो हाथ और दो पैरों के साथ सबने इस धरती पर जन्म लिया। एक सी भावनाएं हैं, एक से एहसास हैं, एक सा दर्द है और एक ही तरह सिसकते भी हैं। 
फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक आगे बढ़ा और दूसरा पीछे हो गया? ऐसा क्या हुआ कि एक अव्वल, दूसरा दोयम हो गया? एक शोषक बना तो दूसरा शोषित होने लगा? किसी ने स्त्री को रोका था या वह खुद ही ठिठक गई, यह स्थिति महिलाओं ने खुद स्वीकार की या थोप दी गई और इसी को स्त्रीत्व का मूल स्वभाव मान लिया गया। जो था नहीं वह बन कैसे गया? जो बोझ लाद दिया गया वह स्वीकार क्यों किया गया?

जो भी हो, जो भी रहा हो अब उसे हर पीड़ा से मुक्ति चाहिए। उसे उसके हिस्से की धूप चाहिए, उसे अपने हिस्से का उजाला चाहिए। भीतर जमी काई और सीलन छूटने में जाने कितना वक्त लगेगा। शायद सदियां लगे, तो लगे। बस जो नहीं होना चाहिये वो नहीं होना चाहिए।