अहो भाग्य!
आंखों में आंसुओं का सैलाब है
सीने में मौजूद हैं बेहिसाब दर्द
कैसे करूं मैं अपने गम को बयां
लोग रोने भी नहीं देते
कहते हैं तुम्हारा भाग्य अच्छा था
जब अंतिम सांस ली तुम्हारे पिता ने
तो तुम उनके साथ थी
तुम उनके बहुत पास थी
मगर मन में
कुछ न कर पाने की कसक लिए हुए
अपने पिता को तड़पते हुए देखना
क्या मेरा अहो भाग्य था!
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Saturday, February 27, 2010
मेरे पिता को समर्पितः-
कैसे बचायें हम खुद को बिखर जाने से।
अब तो डर सा लगता है अपने आशियाने से
छोड़ गये हैं वो उदास हर मौसम को।
हम तो हंस देते थे कल तक जिनके मुस्कराने से।
न जाने कब तक पास रहेंगी ये तन्हाइंयाएक
जिन्दगी का साथ छुट जाने स
शायद महफिल कभी रोशन न हो सके वो हाथ नहीं रहे जो बचाते थे आफताब को बुझ जाने से
बहुत दूर चले गये हैं वो मेरी छुअन से
कैसे मनाऊं अब उन्हें रूठ जाने से।
कैसे बचाये हम खुद को बिखर जाने
से अब तो डर सा लगता है अपने आशियाने से
अब तो डर सा लगता है अपने आशियाने से
छोड़ गये हैं वो उदास हर मौसम को।
हम तो हंस देते थे कल तक जिनके मुस्कराने से।
न जाने कब तक पास रहेंगी ये तन्हाइंयाएक
जिन्दगी का साथ छुट जाने स
शायद महफिल कभी रोशन न हो सके वो हाथ नहीं रहे जो बचाते थे आफताब को बुझ जाने से
बहुत दूर चले गये हैं वो मेरी छुअन से
कैसे मनाऊं अब उन्हें रूठ जाने से।
कैसे बचाये हम खुद को बिखर जाने
से अब तो डर सा लगता है अपने आशियाने से
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